मंगलवार, 27 नवंबर 2007

Poems Of Dr. Mahendra Bhatnagar

महेंद्रभटनागर की कविताएँ


परिचय
उत्कृष्ट काव्य- संवेदना-समन्वित द्विभाषिक कवि : हिंदी और अंग्रेज़ी.
सन 1941 से काव्य-रचना आरम्भ. ‘विशाल भारत’, कोलकता [मार्च1944] में प्रथम कविता का प्रकाशन.
लगभग छ्ह- वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्र्योत्तर.
सामाजिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय चेतना-सम्पन्न रचनाकार. लब्ध-प्रतिष्ठ नवप्रगतिवादी- जनवादी कवि . अन्य प्रमुख काव्य- विषय : प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन. दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन ऒर जगत के प्रति आस्थावान कवि. अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक.
जन्म : 26 जून 1926 / झाँसी
(उ. प्र.)
शिक्षा : एम. ए. (1948), पी-एच. डी. (1957) नागपुर विश्वविद्याल से .
कार्य : कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय /
जीवाजी विश्वविद्यालयसे, ग्वालियर से प्रोफ़ेसर- अध्यापक पद से सेवा-निवृत.
सम्प्रति : शोध-निर्देशक हिंदी भाषा एवं साहित्य .
कार्यक्षेत्र: चम्बल-अंचल, मालवांचल, बुंदेलखंड .
प्रकाशन : ‘डा. महेंद्रभटनागर-समग्र’ छ्ह खंडों में उपलब्ध प्रकाशित काव्य-कृतियां 20.
अनुवाद : कविताएं अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित .
सम्पर्क : 110 बलवंतनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (म.प्र.)
फ़ोन : 0751-4092908



अंततः
दिख रहा अतीत साफ़ फिल्म की तरह —
सवा‌‌‍क्‌ रंगमय सजीव!
पृष्ठभूमि में ध्वनित अमंद वाद्य- गीत!
(द्रश्य वास्तविक अतीव!)

उतर-उभर रहे तमाम चित्र
हार / जीत के : शत्रु / मीत के,
क्रोध— आग के / नेह — राग के!

आह, ज़िंदगी थकी-थकी / बुझी-बुझी
अचान किसी पड़ाव पर
लहर - लहर ठहर गयी!
बिखर - बिखर सिमट गयी,
उलट - पुलट गयी!

अपूर्व शांति है, / न वाद या विवाद,
शेष सिर्फ़ याद!
दुराव है न भेद है!
न चाह है, न राह है!

 

सौन्दर्य
सुन्दरता क्या है?
जो मन को भाये / अतिशय भाये,
मन जिसको पाने ललचाये,
हो विस्मय-विमुग्ध
स्वेच्छिक बंधन में बँध जाये,
होंठों पर गान उतर आये,
जीवन जीने योग्य नज़र आये,
जो मानव को
अति मानव का उच्च धरातल दे,
आत्मा को उज्ज्वल शतदल दे!

असामाजिक परिवेश
आओ, आज अकेले होली खेलें!
आस-पास / दूर-दूर तक
बसे अपरिचित हैं,
अपने-अपने में सीमित हैं,
आपस में अनिमंत्रित हैं
मात्र अवांछित हैं,
आओ, आँगन में एकाकी
ख़ुद अपने ऊपर रंग उड़ेलें!

प्रेय
शीर्ष मूल्य है :
परोपकार,
स्वार्थ-मुक्‍त
निर्विकार ।

लक्ष्य है महान्‌ —
लोक-हित,
साधना सफल वही
रहे हृदय व बुद्धि
संतुलित!

अंतर
बचपन में हर बारिश में
कूद-कूद कर
कैसा अलमस्त नहाया हूँ!
चिल्ला-चिल्ला कर
कितने-कितने गीतों के
मुखड़े गाया हूँ!
जीवित है वह सब
स्मरण-शक्‍ति में मेरी ।

ज्यों-ज्यों बढ़ती उम्र गयी
बारिश से घटता गया लगाव,
न वैसा उत्साह रहा / न वैसा चाव,
तटस्थ रहा, / निर्लिप्त रहा!

अति वर्षा से कुछ आशंकित —
ढह जाए न टपकता घर मेरा,
दूर बसा मज़दूरों का डेरा,
बह जाए न कहीं
निर्धन मानवता का जीर्ण बसेरा!

 