सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

TARON KE GEET

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डॉ. महेंद्र भटनागर
उत्कृष्ट काव्य-संवेदना समन्वित द्वि-भाषिक कवि : हिन्दी और अंग्रेज़ी।
सन् 1941 से काव्य-रचना आरम्भ। 'विशाल भारत' कोलकाता (मार्च 1944) में प्रथम कविता का प्रकाशन। लगभग छह-वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्रयोत्तर।
सामाजिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय चेतना-सम्पन्न रचनाकार।लब्ध-प्रतिष्ठ नवप्रगतिवादी कवि। अन्य प्रमुख काव्य-विषय प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन । दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक।
जन्म : 26 जून 1926 / झाँसी (उत्तर-प्रदेश)शिक्षा : एम.ए. (1948), पी-एच.डी. (1957) नागपुर विश्वविद्यालय से।कार्य : कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय / जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।सम्प्रति : शोध-निर्देशक : हिन्दी भाषा एवं साहित्य।कार्यक्षेत्र : चम्बल-अंचल, मालवांचल, बुंदेलखंड।
प्रकाशन : 'डा. महेंद्रभटनागर-समग्र' छह खंडों में उपलब्ध।प्रकाशित काव्य-कृतियाँ अठारह।
अनुवाद : कविताएँ अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित।
सम्पर्क : फ़ोन : 0751-4092908110, बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर - 474 002 (म.प्र.)
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तारों के गीत
- महेंद्र भटनागर
(1) तारक
झिलमिल-झिलमिल होते तारक !टिम-टिम कर जलते थिरक-थिरक !
कुछ आपस में, कुछ पृथक-पृथक,बिन मंद हुए, हँस-हँस, अपलक,
कुछ टूटे पर, उत्सर्गजनकनश्वर और अनश्वर दीपक।
बिन लुप्त हुए नव-ऊषा तकरजनी के सहचर, चिर-सेवक !
देखा करते जिसको इकटक,छिपते दिखलाकर तीव्र चमक !
जग को दे जाते चरणोदकइठला-इठला, क्षण छलक-छलक !
झिलमिल-झिलमिल होते तारक !

(2) जलते रहोजलते रहो, जलते रहो !
चाहे पवन धीरे चले,चाहे पवन जल्दी चले,आँधी चले, झंझा मिलें,तूफ़ान के धक्के मिलें, तिल भर जगह से बिन हिले जलते रहो, जलते रहो !
या शीत हो, कुहरा पड़े,गरमी पड़े, लूएँ चलें,बरसात की बौछार हो,ओले, बरफ़ ढक लें तुम्हें,आकाश से पर बिन मिटेजलते रहो, जलते रहो !
चाहे प्रलय के राग मेंजीवन-मरण का गान हो,दुनिया हिले, धरती फटेसागर प्रबलतम साँस ले, पिघले बिना सब देखकर जलते रहो, जलते रहो !

(3) तारों से
तारक नभ में क्यों काँप रहे ?
क्या इनके बंदी आज चरण ?अवरुद्ध बनी घुटती साँसें इन पर भी होता शस्त्र-दमन ?क्या ये भी शोषण-ज्वाला से, झुलसाये जाते हैं प्रतिपल ? दिखते पीड़ित, व्याकुल, दुर्बल,कुछ केवल कँपकर रह जाते,कुछ नभ की सीमा नाप रहे !तारक नभ में क्यों काँप रहे ?
क्या दुनिया वाले दोषी हैं ?सुख-दुख मय जीवन-सपनों में जब जग सोया, बेहोशी है,रजनी की छाया में जगती सिर से चरणों तक डूब रही, एकांत मौन से ऊब रही,जब कण-कण है म्लान, दुखी; तबये किसको दे अभिशाप रहे ?तारक नभ में क्यों काँप रहे ?
क्या कंपन ही इनका जीवन ?युग-युग से दीख रहे सुखमय, शाश्वत है क्या इनका यौवन ?गिर-गिर या छुप-छुप कर अविरल क्या आँखमिचौनी खेल रहे ? स्नेह-सुधा की बो बेल रहे !अपनी दुनिया में आपस में हँस-हँस हिल अपने आप रहे ! तारक नभ में क्यों काँप रहे ?

(4) तिमिर-सहचर तारक
ये घोर तिमिर के चिर-सहचर !
खिलता जब उज्ज्वल नव-प्रभात, मिट जाती है जब मलिन रात, ये भी अपना डेरा लेकर चल देते मौन कहीं सत्वर ! ये घोर-तिमिर के चिर-सहचर !
मादक संध्या को देख निकट जब चंद्र निकलता अमर अमिट, ये भी आ जाते लुक-छिप कर जो लुप्त रहे नभ में दिन भर! ये घोर तिमिर के चिर-सहचर !
होता जिस दिन सघन अंधेरा अगणित तारों ने नभ घेरा, ये चाहा करते राका के मिटने का बुझने का अवसर ! ये घोर-तिमिर के चिर-सहचर !
ज्योति-अंधेरे का स्नेह-मिलन, बतलाता सुख-दुखमय जीवन, उत्थान-पतन औ' अश्रु-हास से मिल बनता जीवन सुखकर! ये घोर-तिमिर के चिर-सहचर !
(5) दीपावली और नक्षत्र-तारक
दीप अगणित जल रहे ! अट्टालिकाएँ और कुटियाँ जगमगाती हैं सघन तम में अमा के ! कर रही नर्तन शिखाएँ ज्योति की हिल-हिल, निकट मिल ! और थिर हैं बल्ब नीले, लाल, पीले औ' विविध रंगीन जगती आज लगती ! हो रही है होड़ नभ से; ध्यान सारा छोड़ कर मन सब दिशाओं की तरफ़ से मोड़ कर, इस विश्व के भूखंड भारत ओर ये सब ताकते हैं झुक गगन से, मौन विस्मय ! दूर से भग - देख कर मग, मुग्ध हो-हो साम्य के आश्चर्य से भर ग्रह, असंख्यक श्वेत तारक ! हो गयी है मंद जिनकी ज्योति सम्मुख, हो गया लघुकाय मुख ! निर्जीव धड़कन; लुप्त कम्पन !

(6) तारे और नभ
तुम पर नभ ने अभिमान किया !
नव-मोती-सी छवि को लख कर अपने उर का शृंगार किया,फूलों-सा कोमल पाकर ही अपने प्राणों का हार किया,कुल-दीप समझ निज स्नेह ढाल तुमको प्रतिपल द्युतिमान किया ! तुम पर नभ ने अभिमान किया !
सुषमा, सुन्दरता, पावनता की तुमको लघुमूर्ति समझकर,
निर्मलता, कोमलता का उर में अनुमान लगाकर दृढ़तर,एकाकी हत भाग्य दशा पर जिसने सुख का मधु गान किया ! तुम पर नभ ने अभिमान किया !

(7) संध्या के पहले तारे से
शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
जब कि क्षण-क्षण पर प्रगति कर रात आती जा रही है,चंद्र की हँसती कला भी ज्योति क्रमश: पा रही है,हो गया है जब तिमिरमय विश्व का कण-कण हमारा !शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
बादलों की भी न चादर छा रही विस्तृत निलय में,और टुकड़े मेघ के भी, हो नहीं जिसके हृदय में,है नहीं कोई परिधि भी, स्वच्छ है आकाश सारा !शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
जब कि है गोधूलि के पश्चात का सुन्दर समय यह,हो गये क्यों डूबती रवि-ज्योति में विक्षिप्त लय यह ?बन गयी जो मुक्त नभ के तारकों को सुदृढ़ कारा !शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?

(8) अमर सितारे
टिमटिमाते हैं सितारे !दीप नभ के जल रहे हैंस्नेह बिन, बत्ती बिना ही !मौन युग-युग सेअचंचल शान्त एकाकी !लिए लघु ज्योति अपनी एक-सी,निर्जन गगन के मध्य में।ढल गये हैं युग करोड़ोंसामने सदियाँ अनेकोंबीतती जातीं लिए बसध्वंस का इतिहास निर्मम,पर अचल येहैं पृथक येविश्व के बनते-बिगड़ते,क्षणिक उठते और गिरते,क्षणिक बसते और मिटतेअमिट क्रम सेमुक्त वंचित !कर न पायी शक्ति कोईअन्त जीवन-नाश इनका।ये रहे जलते सदा ही
मौन टिमटिम !मुक्त टिमटिम !

(9) उल्कापात
जब गिरता है भू पर तारा !
आँधी आती है मीलों तक अपना भीषणतम रूप किये,सर-सर-सी पागल-सी गति में नाश मरण का कटु गान लिये, यह चिन्ह जता कर गिरता है तीव्र चमक लेकर गिरता है, यह आहट देकर गिरता है,यह गिरने से पहले ही दे देता है भगने का नारा ! जब गिरता है भू पर तारा !
हो जाते पल में नष्ट सभी भू, तरु, तृण, घर जिस क्षण गिरता,ध्वंस, मरण हाहाकारों का स्वर, आ विप्लव बादल घिरता, दृश्य - प्रलय से भीषणतर कर, स्वर - जैसा विस्फोट भयंकर, गति - विद्युत-सी ले मुक्त प्रखर,सब मिट जाता बेबस उस क्षण जग का उपवन प्यारा-प्यारा ! जब गिरता है भू पर तारा !

(10) ज्योति-केन्द्र
ज्योति के ये केन्द्र हैं क्या ?
ये नवल रवि-रश्मि जैसे, चाँदनी-से शुद्ध उज्ज्वल, मोतियों से जगमगाते, हैं विमल मधु मुक्त चंचल ! श्वेत मुक्ता-सी चमक, पर, कर न पाये नभ प्रकाशित, ज्योति है निज, कर न पाये पूर्ण वसुधा किन्तु ज्योतित ! कौन कहता, दीप ये जो ज्योति से कुटिया सजाते ? ये निरे अंगार हैं बस जो निकट ही जगमगाते ! ये न दे आलोक पाये बस चमक केवल दिखाते, झिलमिलाते मौन अगणित कब गगन-भू को मिलाते ? ज्योति के तब केन्द्र हैं क्या ?

(11) नश्वर तारक
इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !
जीवन की क्षणभंगुरता कोइनने भी जाना पहचाना,बारी-बारी से मिटना, परअगले क्षण ही जीवन पाना,आत्मा अमर रही, पर रूप न शाश्वत; यह मंत्र महान छिपा !इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !
जलते जाएंगे हँसमुख जब- तक शेष चमक, साँसें-धड़कन,कर्तव्य-विमुख जाना है कब, चाहे घेरें जग-आकर्षण ?इस संयम के पीछे बोलो, कितना ऊँचा बलिदान छिपा !इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !
हथकड़ियों में बंदी मानव- सम विचलित हो पाये ये कब ?अधिकार नहीं, पग भर भी बढ़ना है हाय, असम्भव !चंचलता रह जाती केवल दृढ़ तूफ़ानी अरमान छिपा !इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !

(12) नभ-उपवन
इनके ऊपर आकाश नहीं ।इस नीले-नीले घेरे का बस होता है रे अंत वहीं ! इनके ऊपर आकाश नहीं !
पर, किसने चिपकाये प्यारे,इस दुनिया की छत में तारे,कागज़ के हैं लघु फूल अरे हो सकता यह विश्वास नहीं ! इनके ऊपर आकाश नहीं !
कहते हो यदि नभ का उपवन,खिलते हैं जिसमें पुष्प सघन,पर, रस-गंध अमर भर कर यह रह सकता है मधुमास नहीं !इनके ऊपर आकाश नहीं !

(13) इंद्रजालये खड़े किसके सहारे ?
है नहीं सीमा गगन की मुक्त सीमाहीन नभ है,छोर को मालूम करना रे नहीं कोई सुलभ है !सब दिशाओं की तरफ़ से अन्त जिसका लापता है,शून्य विस्तृत है गहनतम कौन उसको नापता है ?
टेक नीचे और ऊपर भी नहीं देती दिखायी,पर अडिग हैं, कौन-सी आ शक्ति इनमें है समायी ?खींचती क्या यह अवनि है ? खींचता आकाश है क्या ?शक्ति दोनों की बराबर ! हो सका विश्वास है क्या ? जो खडे उनके सहारे ! ये खड़े किसके सहारे ?

(14) ज्योति-कुसुम
फूल हीबस फूल की रे,एक हँसतीखिलखिलाती,वायु से औ' आँधियों सेकाँपतीहिलतीसिहरतीयह लता है !यह लता है !देह जिसकी बाद पतझर केनवल मधुमास के,नव कोपलों-सी,शुद्ध, उज्ज्वल, रसमयीकोमल, मधुरतम !
आ कभी जाता प्रभंजनबेल के कुछ फूलया लघु पाँखुड़ी सूखीगँवाकर ज्योति, जीवन शक्ति सारी,मौन झर जातीं गगन से !या कभीजन स्वर्ग के आ,अर्चना को,तोड़ ले जाते कुसुम,इस बेल से,जो विश्व भर में छा रही हैनाम तारों की लड़ी बन !

(15) जलते रहना
तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !
जब तक प्राची में ऊषा की किरणेंबिखरा जाएँ नव-आलोक तिमिर में,विहगों की पाँतें उड़ने लग जाएँइस उज्ज्वल खिलते सूने अम्बर में, तब तक तुम रह-रह कर जलते रहना ! तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !जैसे पानी के आने से पहलेदिन की तेज़ चमक धुँधली पड़ जाती,वेग पवन के आते स्वर सर-सर करफिर भू सुख जीवन शीतलता पाती, गति ले वैसी ही तुम जलते रहना !तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !

(16) शीताभ
ये हिम बरसाने वाले हैं, ये अग्नि नहीं बरसाएंगे !
जब पीड़ित व्याकुल मानवता, दुख-ज्वालाओं से झुलसायी,बंदी जीवन में जड़ता है ; जिसने अपनी ज्योति गँवायी,
जब शोषण की आँधी ने आ मानव को अंधा कर डाला,क्रूर नियति की भृकुटि तनी है, आज पड़ा खेतों में पाला,
त्राहि-त्राहि का आज मरण का जब सुन पड़ता है स्वर भीषण,चारों ओर मचा कोलाहल, है बुझता दीप, जटिल जीवन,
जब जग में आग धधकती है, लपटों से दुनिया जलती है,अत्याचारों से पीड़ित जब भू-माता आज मचलती है,ये दु:ख मिटाने वाले हैं; जग को शीतल कर जाएंगे !ये हिम बरसाने वाले हैं, ये अग्नि नहीं बरसाएंगे !

(17) नृत्त
देखो इन तारों का नर्तन !
सुरबालाओं का नृत्य अरे देखा होगा हाला पीकर,देखा होगा माटी का क्षण-भंगुर मोहक नाच मनोहर,पर गिनती है क्या इन सबकी यदि देखा तारों का नर्तन !युग-युग से अविराम रहा हो बिन शब्द किये रुनझुन-रुनझुन!
देखो इन तारों का नर्तन !
सावन की घनघोर घटाएँ छा-छा जातीं जब अम्बर में,शांति-सुधा-कण बरसा देतीं व्याकुल जगती के अंतर में,तब देखा होगा मोरों का रंगीन मनोहर नृत्य अरे !पर, ये सब धुँधले पड़ जाते सम्मुख तारक-नर्तन प्रतिक्षण !
देखो इन तारों का नर्तन !

(18) अबुझये कब बुझने वाले दीपक ?
अविराम अचंचल, मौन-व्रती ये युग-युग से जलते आये,लाँघ गये बाधाओं को, ये संघर्षों में पलते आये,रोक न पाये इनको भीषण पल भर भी तूफ़ान भयंकरमिट न सके ये इस जगती से, आये जब भूकम्प बवंडर !
झंझा का जब दौर चला था लेकर साथ विरुद्ध-हवाएँ,ये हिल न सके, ये डर न सके, ये विचलित भी हो ना पाए!ये अक्षय लौ को केन्द्रित कर हँस-हँस जलने वाले दीपक ! ये कब बुझने वाले दीपक ?

(19) प्रिय तारक
यदि मुक्त गगन में ये अगणिततारे आज न जलते होते !
कैसे दुखिया की निशि कटती ! जो तारे ही तो गिन-गिन कर, मौन बिता, अगणित कल्प प्रहर, करती हलका जीवन का दुख। कुछ क्षण को अश्रु उदासी के इन तारे गिनने में खोते ! यदि मुक्त गगन में ये अगणित तारे आज न जलते होते ! फिर प्रियतम से संकोच भरे कैसे प्रिय सरिता के तट पर, गोदी के झूले में हिल कर, कहती, 'कितने सुन्दर तारक ! आओ, तारे बन जाएँ हम।' आपस में कह-कह कर सोते ! यदि मुक्त गगन में ये अगणित तारे आज न जलते होते !

(20) मेघकाल में
बादलों में छिप गये सब दृष्टि सीमा तक सितारे !
आज उमड़ी हैं घटाएँ, चल रहीं निर्भय हवाएँ, दे रहीं जीवन दुआएँ, उड़ रहे रज-कण गगन में, घोर गर्जन आज घन में, दामिनी की चमक क्षण में, जब प्रकृति का रूप ऐसा हो गये ये दूर-न्यारे ! बादलों में छिप गये सब दृष्टि सीमा तक सितारे !
जब बरसते मेघ काले, और ओले नाश वाले भर गये लघु-गहन नाले, विश्व का अंतर दहलता, मुक्त होने को मचलता, शीत में, पर, मौन गलता, हट गये ये उस जगह से, हो गये बिलकुल किनारे ! बादलों में छिप गये सब दृष्टि सीमा तक सितारे !

(21) जगते तारे
अर्ध्द निशा में जगते तारे !जब सो जाते दुनिया वासी; जन-जन, तरु, पशु, पंछी सारे !
अर्द्ध निशा में जगते तारे !
ये प्रहरी बन जगते रहते,आपस में मौन कथा कहते,ना पल भर भी अलसाये रे, चमके बनकर तीव्र सितारे ! अर्द्ध निशा में जगत तारे !
झींगुर के झन-झन के स्वर भी,दुखिया के क्रन्दन के स्वर भी,लय हो जाते मुक्त-पवन में चंचल तारों के आ द्वारे ! अर्द्ध निशा में जगते तारे !
निद्रा लेकर अपनी सेना,कहती, 'प्रियवर झपकी लेना'हर लूँ फिर मैं वैभव, पर, ये कब शब्द-प्रलोभन से हारे ! अर्द्ध निशा में जगते तारे !
जलते निशि भर बिन मंद हुए,कब नेत्र-पटल भी बंद हुए,जीवन के सपनों से वंचित ये सुख-दुख से पृथक बिचारे ! अर्द्ध निशा में जगते तारे !
 

MRITU-BODH : JEEWAN-BODH

मृत्यु-बोध : जीवन-बोध
— डॉ. महेंद्रभटनागर

(1) आभार
मृत्यु है;
मृत्यु निश्चित है, / अटल है ,
जीवन इसलिए ही तो
इतना काम्य है !
इसलिए ही तो जीवन-मरण में
इतना परस्पर साम्य है !

मृत्यु ने ही
जीवन को दिया सौन्दर्य
इतना — अशेष - अपार !
मृत्यु ने ही
मानव को दिया
जीवन-कला-सौकर्य
इतना — सिँगार - निखार !

नि:संदेह
है स्वीकार्य नश्वरता,
मर्त्य दर्शन / भाव
प्रतिपल मृत्यु-तनाव !
आभार
मृत्यु के प्रति
प्राण का आभार !
 ࡝
(2) आभार; पुन:
मौत ने ज़िन्दगी को बड़ा ख़ूबसूरत बना दिया,
लोक को, असलियत में सुखद एक जन्नत बना दिया!
अर्थ हम प्यार का जान पाये, तभी तो सही-सही,
आदमी को अमर देव से; और उन्नत बना दिया !
 
(3) काल-चक्र
निर्मम है काल-चक्र
अतिशय निर्मम !
जिसके नीचे जड़-जंगम
क्रमश: पिसता और बदलता
हर क्षण, हर पल !
थर-थर कँपता भू-मंडल !

अदृश्य — नि:शब्द किये
अविरत घूम रहा यह काल-चक्र
निर्विघ्न ... निर्विकार !
इसके सम्मुख
स्थिरता का कोई अस्तित्व नहीं,
इसकी गति से सतत नियन्त्रित
जीवन और मरण — धरती और गगन !
 
(4) निरुद्विग्न
मृत्यु से डरते रहेंगे
तो हो जायगा
जीना निरर्थक !
भार बोझिल, शुष्क नीरस,
निर्विषय मानस
अत: सार्थक तभी जीवन,
मरण-डर मुक्त हो हर क्षण,
अशुभ है नाम लेना
मृत्यु-भय का या प्रलय का
इसी कारण !
 
(5) चिन्तन
मृत्यु —
एक प्रश्न- चिह्न (?)
भेद जानना —
दुरूह ही नहीं;
मनुष्य के लिए अ-ज्ञात सब !

देह पंच-तत्व में विलीन
सब बिखर-बिखर
समाप्त!
प्राण लौटना नहीं;
न सम्भवी पुन: सचेत कर सकें,
रहस्य ज्ञात कर सकें
स्वयं जब नहीं
मरण - प्रहेलिका / अजब प्रहेलिका !
अबूझ आज तक / गज़ब प्रहेलिका !
प्रयत्न व्यर्थ
मृत्यु-अर्थ व्यक्त हो सके;
जटिल कठिन विचारणा
 
(6) पहेली
क्या कहा ?
तन रहने योग्य नहीं रहा;
इसलिए ...
आत्मन ! तुम चले गये !
नये की चाह में
किसी राह में;
कहाँ ? लेकिन कहाँ ??
अज्ञात है / सब अज्ञात है !
घुप अँधेरी रात है,
रहस्यपूर्ण हर बात है !
प्रश्न— किसका है ?
उत्तर— किसका है ?
 
(7) सचाई
मृत्यु नहीं होती
तो ईश्वर का भी अस्तित्व नहीं होता,
कभी नहीं करता मानव
प्रारब्धवाद से समझौता !

ईश्वर प्रतीक है / ईश्वर प्रमाण है
मानव की लाचारी का,
मृत्युपरान्त तैयारी का!

स्वर्ग-नरक का
सारा दर्शन-चिन्तन कल्पित है,
मानव
मृत्यु-दूत की आहट से
हर क्षण आतंकित है, रह-रह रोमांचित है !
मालूम है उसे
'मृत्यु सुनिश्चित है !'
इसीलिए पग-पग पर आशंकित है !
यही नहीं
तथाकथित मर्त्यलोक से
नितान्त अपरिचित है वह,
अत: तभी तो जाता है
ईश्वर की शरण में
पाने चिर-शान्ति मरण में !
अत: तभी तो गाता है
एक-मात्र—
'राम नाम सत्य है !'
अरे, जन्म-मृत्यु कुछ नहीं
उसी का
विनोद - क्रूर कृत्य है !
 
(8) मृत्यु-रूप
मृत्यु प्राकृतिक हो
या आकस्मिक दुर्घटना हो
निष्कर्ष एक है
अन्त-कर्म जीवन का,
होना चेतनहीन सक्रिय तन का,
सदा-सदा को होना सुप्त हृदय-स्पन्दन का !
दोनों ही
तथाकथित विधि-लेख हैं,
भाग्य-लिपि अदृष्ट अमिट रेख हैं !
लेकिन — जीवन-वध
चाहे आत्म-हनन हो,
या हत्या-भाव-वहन हो,
या व्यक्ति और समाज रक्षा हेतु
दरिन्दों का दमन-दलन हो,
नहीं मरण;
है प्राण-हरण.
भले ही अंत एक —
मृत्यु !
सही मृत्यु या अकाल मृत्यु !
 
(9) निष्कर्ष
मृत्यु —
प्रश्न-चिह्न(?)
स्थिर … अनुत्तरित ….अड़ा,
विरूद्ध बन खड़ा !
पर, नहीं
मनुष्य हार मानना,
तनिक न ईश कल्पना
बचाव में,
सवाल के जवाब में,
नहीं, नहीं !
रहस्य मृत्यु का
निरावरण ... प्रकट
अवश्य
अवश्य
एक दिन !
(10) जन्म-मृत्यु
मृत्यु :
जन्म से बँधी
अटूट डोर है,
जन्म :
एक ओर;
मृत्यु :
दूसरा प्रतीप छोर है !
जन्म - एक तट
मरण - विलोम तीर;
जन्म :
हर्ष क्यों ?
मृत्यु :
पीर ... !
क्यों ?
जन्म-मृत्यु
जब समान हो ?
एक / रूपवान;
दूसरा / महानिधान है !
जन्म
सू त्रपात है,
मृत्यु
नाश है : निघात है !
जन्म ... ज्ञात,
मृत्यु ... अ-ज्ञात !
जन्म : आदि,
मृत्यु : अन्त है !
जन्म : श्रीगणेश,
मृत्यु : क्षिति दिगन्त है !
जन्म : हाँ, हयात है,
मृत्यु : हा! विघात है !
जन्म : नव-प्रभात है,
मृत्यु : घोर रात है !
(11) युग्म
चारों ओर फैली
मरुभूमि रेतीली
बुझते दीपक लौ-सी
भूरी
पिंगल।
पीत-हरित
जल-रहित
ढलती उम्र
मरणासन्न !
लेकिन
अनगिनती
लहराते ... हरिआते
मरुद्वीप !
कँटीले
पत्तों रहित
पनपते पेड़
जीवन-चिन्ह
पताकाएँ !
जलाशय
आशय ... जीवन-द
प्राणद !
(12) विलोम
जीवन : हर्षोल्लास
मृत्यु : अंतिम निश्वास
मधुर राग / चीत्कार !
शुभ-कृत / हाहाकार !
(13) समान
प्रात भी अरुण
सान्ध्य भी अरुण
प्रात-सान्ध्य एक हो।
जन्म पर रुदन
मृत्यु पर रुदन
जन्म-मृत्यु एक हो।
यही
सही विवेक है,
यथार्थ ज्ञान है,
व्यर्थ
और ... और ध्यान है।
(14) साखी
इतने उदास क्यों होते हो ?
होशोहवास क्यों खोते हो ?
जीवन - बहुमूल्य है; सही
है अटल मृत्यु; क्यों रोते हो ?
(15) कामना
जिएँ समस्त शिशु तरुण
अकाल मृत्यु है करुण।
(16) वास्तव
''मृत्यु
जन्म है
पुन: - पुन:
आत्म - तत्व का।''
असत्य; इस विचार को
कि सत्य मान लें ?
अंध मान्यता
तर्क हीन मान्यता !
प्राण / पंच - तत्व में विलीन,
अंत / एक सृष्टि का,
अंत / एक व्यक्ति का,
एक जीव का।
कहीं नहीं
यहाँ ... वहाँ।
सही यही
कि लय सदैव को।
न है नरक कहीं,
न स्वर्ग है कहीं,
यथार्थ लोक सत्य है।
मृत्यु सत्य है,
जन्म सत्य है।
(17) जीवन-दर्शन
बहिर्गति
भौतिक स्पन्दन;
अन्तर-गति
जीवन।
जीवन गति का वाहक
मोक्ष
सतत नियन्त्रक
मोक्ष
जब - तक
गतिशील रहेगा जीवन
इतिहास रचेगा
मानव-मन
मानव-तन।
लय हो न कभी;
जीवन लयवान रहे,
कण-कण गतिमान रहे।
लयगत होना
अन्तर गति खोना।
(18) चरैवेति
संघर्षों-संग्रामों से
जीवन की निर्मिति,
होना निष्क्रिय
ज्ञापक - आसन्न मरण का,
थमना जीवन की परिणति।
जीवन : केवल गति,
अविरति गति !
क्रमश: विकसित होना,
होना परिवर्तित
जीवन का धारण है !
स्थिरता
प्राण-विहीनों का
स्थापित लक्षण है !
जीवन में कम्पन है, स्पन्दन है,
जीवन्त उरों में अविरल धड़कन है !
रुकना
अस्तित्व - विनाशक
अशुभ मृत्यु को आमंत्रण,
चलते रहना ... चलते रहना !
एक मात्र मूल-मंत्र
साधक जीवन !
(19) प्रयोगरत
आदमी में
चाह जीवन की
सनातन और सर्वाधिक प्रबल है;
जब कि
हर जीवन्त की
अन्तिम सचाई
मृत्यु है !
हाँ, अन्त निश्चित है,
अटल है !
लेकिन / सत्य है यह भी
अमरता की : अजरता की
लहकती वासना का वेग
होगा कम नहीं,
अद्भुत पराक्रम आदमी का
चाहता कलरव,
रुदन मातम नहीं !
हर बार
ध्रुव मृति की चुनौती से
निरन्तर जूझना स्वीकार !
मृत्युंजय
बनेगा वह; बनेगा वह !
(20) सार्थकता
जीना-भर
जीवन-सार्थकता का
नहीं प्रमाण,
जीना -
मात्र विवशता
जैसे - मृत्यु ..... प्रयाण।
जो स्वाभाविक
उसके धारण में
कोई वैशिष्टय नहीं,
संज्ञा
प्राणी होना मात्र
मनुष्य नहीं।
मानव - महिमा का
उद् घोष तभी,
मन में हो
सच्चा तोष तभी
जब हम जीवन को
अभिनव अर्थ प्रदान करें,
भरे अंधेरे में
नव - नव ज्योतिर्लोकों का
संधान करें।
सृष्टि-रहस्यों को ज्ञात करें,
चाँद-सितारों से बात करें।
परमार्थ
हमारे जीने का लक्ष्य बने,
हर भौतिक संकट
पग-पग पर भक्ष्य बने।
इतनी क्षमताएँ
अर्जित हों,
फिर,
प्राण भले ही
मृत्यु समर्पित हों,
कोई ग्लानि नहीं,
कोई खेद नहीं,
इसमें
किंचित मतभेद नहीं,
जीवन सफल यही
जीवन विरल यही
धन्य मही !
(21) प्रार्थना
वांछित
अमरता नहीं;
चाहता हूँ
अजरता।
सकल स्वास्थ्य, आरोग्य
निरुद्विग्नता
तन और मन की।
अभिप्रेत वरदान यह
कल्पित किसी ईश से
नहीं।
स्व-साधित सतत साधना से
आराधना से नहीं।
तन क्लेश-मुक्त
मन क्लेश-मुक्त
हाँ,
एक-सौ-और-पच्चीस वर्षों
जिएँ हम!
अपने लिए,
दूसरों के लिए।
(22) मृग - तृषा
उच्छृंखल और महत्त्वाकांक्षी
मानव
धन के पीछे भाग रहा है
सुख के पीछे भाग रहा है
जीवन की क़ीमत पर।
आश्चर्य अरे
इस अद्भुत दूषित नीयत पर !
जीवन है तो / धन-योग बनेगा,
जीवन है तो / सुख-भोग सधेगा !
खंडित और विशृंखल जीवन
रोग-ग्रस्त / हत घायल जीवन
क्षण-भंगुर
मृत्यु-कुण्ड में
गिरने को आतुर !
अंधा, संभ्रम, अज्ञानी
मानव
धन ही वर्चस्व समझ रहा है
सुख को सर्वस्व समझ रहा है !
बहुमूल्य मिला जो जीवन / धो बैठेगा,
जीवन की नेमत / खो बैठेगा !
(23) संकल्प
पूर्ण निष्ठावान
हम,
आश्वस्त हो उतरे
विकट जीवन-मरण के
द्वन्द्व में !
बन सिपाही
अमर जीवन-वाहिनी के,
घिर न पाएंगे
विपक्षी के किसी
छल-छन्द में !
हार जाएँ,
पर, वर्चस्व मानेंगे नहीं
तनिक भी मरण का,
अधिकार अपना
छिनने नहीं देंगे
जीवन वरण का !
जयघोष गूँजेगा
चरम निश्वास तक,
संघर्षरत
बल-प्राण जूझेगा
शेष आस / प्रयास तक !
(24) जयघोष
सारा विश्व सोता है
इतनी रात गुज़रे
कौन रोता है ?
सुना है
पास के घर में
मृत्यु का धावा हुआ है,
सत्य है
कोई मुआ है !
यमदूत के
तीखे छुरे ने
आदमी को फिर
छुआ है !
पहुँचो
अमृत-सम्वेदना-लहरें लिए,
यह आदमी
फिर-फिर जिए !
जीवन-दुंदुभी बजती रहे,
क्षण-क्षण
भले ही, अरथियाँ सजती रहें !
(25) आह्नान
अलख
जगाने वाले आये हो,
नव-जीवन का
प्रिय मधु गीत
सुनाने वाले आये हो !
सोहर गाने वाले आये हो !
उर-वीणा के तार-तार पर
जीवन-राग
बजाने वाले आये हो !
मन से हारो !
जागो !
तन के मारो !
जागो !
जीवन के
लहराते सागर में
कूदो
ओ गोताख़ोरो !
जड़ता झकझोरो !
(26) एक दिन
जीवन
विजयी होगा
विश्वास करें,
नीच मीच से
न डरें; न डरें !
हर संशय का
नाश-विनाश करें !
जीवन जीतेगा
विश्वास करें !
घनघोर अंधेरा
मौत मरी का
छाएगा / डरपाएगा;
सूरज के बल पर / दम पर
विश्वास करें !
इसका
क़तरा-क़तरा फ़ाश करें !
चारों ओर प्रकाश भरें !
जीवन जीतेगा
विश्वास करें !
(27) उद्देश्य
हम
जो जीवन के शिल्पी हो
केवल जीवन की
बात करें,
जीवन की सार्थकता खोजें,
जीवन - तत्वों को
ज्ञात करें !
मरण
हमारा हरण करे तो
उस पर बढ़ कर
आघात करें,
जीवन का
जय - जयकार करें,
यम का
मृति का
संघात करें !
(28) अभीष्ट
जीवन-उपवन में
मृत्यु सर्पिणी का
अस्तित्व न हो,
मृत्यु भीत से आतंकित
मानव-व्यक्तित्व न हो !
हर मानव
भोगे जीवन
संदेह रहित,
हो हर पल उसका
मधुरित सिंचित !
जीवन - धर्मी
जीवन से खेले,
भरपूर जिये जीवन
हर सुख की बाँहें
बाँहों में ले ले !
(29) मन-वांछित
जब-तक
जीना चाहा
हमने;
ख़ूब जिये !
मानों
वर्षा में भी
जलते रहे दिये !
नहीं किसी की
रही कृपा,
जूझे -
अपने बल पर
विश्वास किये !
(30) सिध्द
जिजीविषु
नहीं करेगा
मृत्यु-प्रतीक्षा !
सोना
सच्चा खरा तपा
क्यों देगा
अग्नि-परीक्षा ?
भ्रम तोड़ो,
काल-चक्र को मोड़ो !
जीवन से नाता जोड़ो !
जड़ता छोड़ो !
(31) स्वस्थ दृष्टि
स्वयं को
शाश्वत समझ कर
जीते हो,
निश्चिन्त
हँसते और गाते हो,
बेफ़िक्र
खाते और पीते हो;
जीना
क्या इसे ही
हम कहें ?
अंत से
जब रू-ब-रू हों,
अन्यथा
अनभिज्ञ ही उससे रहें,
क्या
जीना इसे ही
हम कहें ?
(32) साम्य
गाता हूँ
विजय के गीत
गाता हूँ !
मृत्यु पर
जीवन जगत की जीत
गाता हूँ !
अति प्रिय वस्तु
जीवन-विस्फुरण की
बेधड़क जयकार
गाता हूँ !
क़ब्रिस्तान के आकाश में
जो गूँजते हो स्वर
परिन्दों के
स्वच्छन्द रिन्दों के
अनुवाद हो
मेरी
जीवन-भावनाओं के !
सहचार हो
मेरी
जीवन-अर्चनाओं के !
(33) दह्शतअंगेज़
सावधान !
फहरा दी है
हमने
घर-घर, गाँव-गाँव, नगर-नगर
जीवन की
नव-जीवन की
लाल पताकाएँ !
बस्ती-बस्ती, चौराहों-सतराहों पर,
यहाँ-वहाँ -
ठाँव-ठाँव !
लहरा दी हो
रक्त-पताकाएँ !
अब नहीं चलेगा
आतंकी, घातक, जन-भक्षी,
मद-ज्वर-ग्रस्त
मरण-राक्षस का
कोई भी दांव !
तन के भीतर घुस कर
घात लगाता है,
अपने को अविजित यम का
दूत बताता है,
तन के भीतर
विस्फोटक-बारूद
बिछाता है,
और ...
अदृश स्थानों से
छिप-छिप कर
दूरस्थ-नियन्त्रित-यंत्र चलाता है !
देखें
अब और किधर से आता है !
(34) मृत्यु-दर्शन
मृत्यु :
सुनिश्चित है जब;
व्यर्थ इस क़दर
क्यों होते हो
आशंकित,
आतंकित !
मृत्यु से अरे कह दो
'जब चाहे आना; आये।'
इस समयावधि तो
आओ,
मिल कर नाचें-गाएँ !
नाना वाद्य बजाएँ !
तोड़ें मौन;
मृत्यु की चिन्ता
करता है कौन ?
(35) आमंत्रण
मृत्यु
आना,
एक दिन ज़रूर आना !
और मुझे
अपने उड़नखटोले में
बैठा कर ले जाना;
दूर ... बहुत दूर
नरक में !
जिससे मो
नरक-वासियों को
संगठित कर सकूँ,
उन्हें विद्रोह के लिए
ललकार सकूँ,
ज़िन्दगी बदलने के लिए
तैयार कर सकूँ !
नहीं मानता मो
किसी चित्रगुप्त को
किसी यमराज को;
चुनौती दूंगा उन्हें !
बस, ज़रा कूद तो जाऊँ
नरक-कुण्ड में !
मिल जाऊँ
नरक-वासियों के
विशाल झुण्ड में !
(36) मृत्यु-परी से
मृत्यु आओ
हम तैयार हो !
मत समझो
कि लाचार हो ।
पूर्व-सूचना
दोगी नहीं क्या ?
आभार मेरा
लोगी नहीं क्या ?
आओगी -
बिना आहट किये
आश्चर्य देती !
नटखट बालिका की तरह !
ठीक है,
स्वीकार है !
मेरी चहेती,
तुम्हारा खेल यह
स्वीकार है !
चुपचाप आओ,
मृत्यु आओ
हम तैयार हो !
अच्छी तरह
समझते हो
कि जीवन-पुस्तिका का
उपसंहार हो तुम !
इसलिए
मेरे लिए
पूर्णता का
शुभ-समाचार हो तुम !
आओ,
मृत्यु आओ,
हम तैयार हो !
प्रतीक्षा में तुम्हारी
सज-धज कर
तैयार हो !
(37) निवेदन
मृत्यु
क्या हुआ
यदि तुम स्त्री-लिंग हो,
तुम्हें मित्र बना सकता हूँ !
शरमाती क्यों हो ?
आओ
हमजोली बनो ना !
हमख़ाना नहीं तो
हमसाया बनो ना !
चाँद के टुकड़े जैसी तुम !
सामने वाली खिड़की से
झाँकना,
ऑंकना !
और एक दिन अचानक
मुझे साथ ले
चल पड़ना
प्रेत-लोक में !
यों ही
नोकझोंक में !
(38) मृत्यु-विधि
स्वप्न देखते
आती होगी मृत्यु,
तन से
प्राण चले जाते होंगे
तभी।
स्वप्न देखता रहता आदमी
दिवंगत हो जाता होगा !
वह क्या जाने ?
दुनिया वालों से पूछो
जिन्होंने
तन पर रख
ढक दी है चादर !
क्या हुआ ?
हुआ क्या ?
आख़िर ?
(39) तुलना
शिव में
शव में
अन्तर है मात्र इकार का
(तीसरे वर्ण वार का।)
शिव
मंगलकारी है
सुख झड़ता है !
शव
अनिष्ट-सूचक
केवल सड़ता है !
शिव के तीन नेत्र हैं,
शव अंधा है !
कैसा गोरखधंधा है ?
(40) अन्तर
आपने याद किया
आभार !
मीठा दर्द दिया
स्वीकार !
कितना अद्भुत है संयोग
कि अन्तिम विदा
अरे ! ओ प्रेम प्रथम !
आये
ओझल होती राह पर,
लिए चाह े
जो कभी पूरी होनी नहीं,
कभी वास्तव स्थूल छुअन से
सह-अनुभूत हमारी
यह दूरी होनी नहीं !
जाता हूँ
याद लिए जाता हूँ,
दर्द लिए जाता हूँ !
(41) अन्त
समर
अब कहाँ है ?
सफ़र
अब कहाँ है ?
थम गया सब
बहता उछलता नदी-जल तरल,
जम गया सब
नसों में रुधिर की तरह !
दर्द से
देह की हड्डियाँ सब
चटखती लगातार,
अब कौन
इन्हें दबाए
टूटती आख़िरी साँस तक ?
अंधेरे-अंधेरे घिरे
जब न कोई
पास तक !
लहर अब कहाँ
एक ठहराव है,
ज़िन्दगी अब
शिथिल तार;
बिखराव है !
(42) आघात
मोने ...
जीवित रखा तुम्हें
अत: तुम्हारी
जीवित गलित लाश भी
ढोऊंगा !
मूक विवश ढोऊंगा !
विश्वासों का ख़ून किया
तुमने,
अरमानों को
जलती भट्ठी में भून दिया
तुमने !
छल-छद्म का
सफल अभिनय कर,
जीवन के हर पल में
दर्द असह भर !
प्यारा नहीं बना,
हत्यारा नहीं बना !
अरे ! नहीं छीना जीने का हक़;
यदपि हुआ बेपरदा शक,
हर शक !
जीवित रखा जब
नरकाग्नि में दहूंगा
बन संवेदनहीन
सब सहूंगा !
पहले या फिर
सब को
चिर-निद्रा में सोना है,
मिट्टी-मिट्टी होना है !
ओ बदक़िस्मत !
फिर, कैसा रोना है ?
(43) सत्य
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे,
उड़ जाएंगे !
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे !
काहे इतना जतन करे,
शाम-सबेरे भजन करे,
तेरे वश में क्या है रे
मन्दिर-मन्दिर नमन करे,
इक दिन तन के पिंजर से
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे !
जो कभी न
वापस आएंगे !
उड़ जाएंगे
प्राण-पखेरू
उड़ जाएंगे !
(44) निश्चिति
तय है कि
तू
एक दिन
मृत्यु की गोद में
मौन
सो जायगा !
तय है कि
तू
एक दिन
मृत्यु के घोर अंधियार में
डूब
खो जायगा !
तय है कि
तू
एक दिन
त्याग कर रूप श्री
भस्म में सात्
हो जायगा !
(45) घोषणा
दुनिया वालों से
कह दो
अब
महेन्द्रभटनागर सोता है !
चिर-निद्रा में सोता है !
जो
होना होता है;
वह होता है !
रे मानव !
तू क्यों रोता है ?
जीवन
जो अपना है,
उस पर भी
अपना अधिकार नहीं,
घर-धन
जो अपना है
उसमें भी
सचमुच
कोई सार नहीं !
उसके
तुम दावेदार नहीं !
बन कर
मौन विरक्त - विरागी
चल देते हो
छोड़ सभी,
चल देते हो
नये-पुराने नाते-रिश्ते
तोड़ सभी !
रे इस क्षण का
अनुभव
सब को करना है,
मृत्यु अटल है
फिर
उससे क्या डरना है ?
ओ, मृत्यु अमर !
तुम समझो चाहे
लाचार मुझे,
उपसंहार मुझे,
स्वेच्छा से
करता हूँ अंगीकार तुम्हें
तन-मन से स्वीकार तुम्हें !
सुखदायी
मिट्टी की शैया पर सोता हूँ !
इस मिट्टी के
कण - कण में मिल कर
अपनापन खोता हूँ !
नव जीवन बोता हूँ !
जैसे जीवन अपनाया
वैसे
हे, मृत्यु
तुम्हें भी अपनाता हूँ !
जाता हूँ,
दुनिया से जाता हूँ !
सुन्दर घर, सुन्दर दुनिया से
जाता हूँ !
सदा ... सदा को
जाता हूँ !
(46) नमन
अलविदा !
जग की बहारो
अलविदा !
ओ, दमकते चाँद
झिलमिलाते सित सितारो
अलविदा !
पहाड़ो ... घाटियो
ढालो ... कछारो
अलविदा !
उफ़नती सिन्धु-धारो
अलविदा !
फड़फड़ाती
मोह की पाँखो,
छलछलाती
प्यार की ऑंखो
अलविदा !
अटूटे बंध की बाँहो
अधूरी छूटती चाहो
अलविदा !
अलविदा !
(47) अलविदा !
प्रारब्ध के मारे हुए
हम,
ज़िन्दगी के खेल में
हारे हुए
हम,
हाय !
अपनों से सताए,
हृदय पर चोट खाए,
सिर झुकाए
मौन
जाते हैं सदा को
कभी भी
याद मत करना,
आज के दिन भी
सुनो,
स्मृति-दीप मत रखना !
(48) तपस्वी
मृत्यु पर पाने विजय
सिध्दार्थ - साधक
एक और चला !
जिसने हर चरण
यम-वाहिनी की
छल-कुचालों को दला !
किसी भी व्यूह में
न फँसा,
मौत पर
अपना कठिन फंदा कसा !
गा रहा है जो
ज़िन्दगी के गीत
मृत्यु-कगार पर,
एक दिन
पा जायगा
पद अमर
अपना बदल कर रूप !
रखना सुरक्षित
इस धरोहर को
बना कर स्तूप !
(49) मृत्यु-पत्र
रोना नहीं,
दीन-निरीह होना नहीं !
आघात सहना,
संयमित रहना।
आडम्बरों से मुक्त
अन्तिम कर्म हो,
ध्यान में बस
पारलौकिक-पारमार्थिक मर्म हो !
मृत्युपरान्त जगत व जीवन
न जाना किसी ने
न देखा किसी ने ....
निर्धारित व्यवस्थाएँ समस्त
कपोल-कल्पित हो,
सब अतर्कित हैं।
अनुसरण उनका अवांछित है !
अंधानुयायी रे नहीं बनना,
ज्ञान के आलोक में
हो संस्कार-पूत उपासना।
आदेश यह
सद्धर्म सद्भावना।
(50) कृतकर्मा
दु:ख क्यों ?
शरीर-धर्म की पूर्ति पर
दु:ख क्यों ?
अंत
चिन्ह पूर्णता,
सफल चरण
दु:ख क्यों ?
जीव की समाप्ति
एक क्रम
दु:ख क्यों ?
शेष
जीवनी वृतान्त
अर्थ सिध्दि दो,
नाम दो।
आख़िरी सलाम लो !
---------------.
रचनाकार परिचय:
उत्कृष्ट काव्य-संवेदना समन्वित द्वि-भाषिक कवि :
हिन्दी और अंग्रेज़ी।
सन् 1941 से काव्य-रचना आरम्भ। 'विशाल भारत',
कोलकाता (मार्च 1944) में प्रथम कविता का प्रकाशन।
लगभग छह-वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्रयोत्तर। सामाजिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय
चेतना-सम्पन्न रचनाकार।
लब्ध-प्रतिष्ठ प्रगतिवादी-जनवादी कवि। अन्य प्रमुख काव्य-
विषय प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन ।
दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-
विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक।
जन्म : 26 जून 1926 / झाँसी (उत्तर-प्रदेश)
शिक्षा : एम.ए. (1948), पी-एच.डी. (1957) नागपुर
विश्वविद्यालय से।
कार्य : कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय /
जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
सम्प्रति : शोध-निर्देशक हिन्दी भाषा एवं साहित्य।
कार्यक्षे त्र : चम्बल-अंचल, मालवांचल, बुंदेलखंड।
प्रकाशन % 'डा. महेंद्रभटनागर-समग्र' छह खंडों में
उपलब्ध।
प्रकाशित काव्य-कृतियाँ 20
अनुवाद : कविताएँ अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित।
वेबसाइट : हिन्दी और अंग्रेज़ी की अनेक वेबसाइटों पर
काव्य-साहित्य दृष्टव्य।
------------------.
सम्पर्क : फ़ोन : 0751-4092908

राग-संवेदन

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राग-संवेदन / महेंद्र भटनागर

[१] राग-संवेदन / १
सब भूल जाते हैं ...
केवल
याद रहते हैं
आत्मीयता से सिक्त
कुछ क्षण राग के,
संवेदना अनुभूत
रिश्तों की दहकती आग के!
आदमी के आदमी से
प्रीति के सम्बन्ध
जीती-भोगती सह-राह के
अनुबन्ध!
केवल याद आते हैं
सदा !
जब-तब
बरस जाते
व्यथा-बोझिल
निशा के
जागते एकान्त क्षण में,
डूबते निस्संग भारी
क्लान्त मन में!
अश्रु बन
पावन!
[2] ममत्व
न दुर्लभ हैं
न हैं अनमोल
मिलते ही नहीं
इहलोक में, परलोक में
आंसू .... अनूठे प्यार के,
आत्मा के
अपार-अगाध अति-विस्तार के!
हृदय के घन-गहनतम तीर्थ से
इनकी उमड़ती है घटा,
और फिर ....
जिस क्षण
उभरती चेहरे पर
सत्त्व भावों की छटा _
हो उठते सजल
दोनों नयन के कोर,
पोंछ लेता अंचरा का छोर!
[3] यथार्थ
राह का
नहीं है अंत
चलते रहेंगे हम!
दूर तक फैला
अंधेरा
नहीं होगा ज़रा भी कम!
टिमटिमाते दीप-से
अहर्निश
जलते रहेंगे हम!
साँसें मिली हैं
मात्र गिनती की
अचानक एक दिन
धड़कन हृदय की जायगी थम!
समझते-बूझते सब
मृत्यु को छलते रहेंगे हम!
हर चरण पर
मंज़िलें होती कहाँ हैं?
ज़िन्दगी में
कंकड़ों के ढेर हैं
मोती कहाँ हैं?

[4] लमहा
एक लमहा
सिर्फ़ एक लमहा
एकाएक छीन लेता है
ज़िन्दगी!
हाँ, फ़क़त एक लमहा।
हर लमहा
अपना गूढ़ अर्थ रखता है,
अपना एक मुकम्मिल इतिहास
सिरजता है,
बार - बार बजता है।
इसलिए ज़रूरी है _
हर लमहे को भरपूर जियो,
जब-तक
कर दे न तुम्हारी सत्ता को
चूर - चूर वह।
हर लमहा
ख़ामोश फिसलता है
एक-सी नपी रफ्तार से
अनगिनत हादसों को
अंकित करता हुआ,
अपने महत्त्व को घोषित करता हुआ!
(5) निरन्तरता
हो विरत ...
एकान्त में,
जब शान्त मन से
भुक्त जीवन का
सहज करने विचारण _
झाँकता हूँ
आत्मगत
अपने विलुप्त अतीत में _
चित्रावली धुँधली
उभरती है विशृंखल ... भंग-क्रम
संगत-असंगत
तारतम्य-विहीन!
औचक फिर
स्वत: मुड़
लौट आता हूँ
उपस्थित काल में!
जीवन जगत जंजाल में!

[6] नहीं
लाखों लोगों के बीच
अपरिचित अजनबी
भला,
कोई कैसे रहे!
उमड़ती भीड़ में
अकेलेपन का दंश
भला,
कोई कैसे सहे!
असंख्य आवाज़ों के
शोर में
किसी से अपनी बात
भला,
कोई कैसे कहे!

[7] अपेक्षा
कोई तो हमें चाहे
गाहे-ब-गाहे!
निपट सूनी
अकेली ज़िन्दगी में,
गहरे कूप में बरबस
ढकेली ज़िन्दगी में,
निष्ठुर घात-वार-प्रहार
झेली ज़िन्दगी में,
कोई तो हमें चाहे,
सराहे!
किसी की तो मिले
शुभकामना
सद्भावना!
अभिशाप झुलसे लोक में
सर्वत्र छाये शोक में
हमदर्द हो
कोई
कभी तो!
तीव्र विद्युन्मय
दमित वातावरण में
बेतहाशा गूँजती जब
मर्मवेधी
चीख-आह-कराह,
अतिदाह में जलती
विधवंसित ज़िन्दगी
आबद्व कारागाह!
ऐसे तबाही के क्षणों में
चाह जगती है कि
कोई तो हमें चाहे
भले,
गाहे-ब-गाहे!

[8] चिर-वंचित
जीवन - भर
रहा अकेला,
अनदेखा _
सतत उपेक्षित
घोर तिरस्कृत!
जीवन - भर
अपने बलबूते
झंझावातों का रेला
झेला !
जीवन - भर
जस-का-तस
ठहरा रहा झमेला !
जीवन - भर
असह्य दुख - दर्द सहा,
नहीं किसी से
भूल
शब्द एक कहा!
अभिशापों तापों
दहा - दहा!
रिसते घावों को
सहलाने वाला
कोई नहीं मिला _
पल - भर
नहीं थमी
सर -सर
वृष्टि - शिला!
एकाकी
फाँकी धूल
अभावों में -
घर में :
नगरों-गाँवों में!
यहाँ - वहाँ
जानें कहाँ - कहाँ!

[9] जीवन्त
दर्द समेटे बैठा हूँ!
रे, कितना-कितना
दु:ख समेटे बैठा हूँ!
बरसों-बरसों का दुख-दर्द
समेटे बैठा हूँ!
रातों-रातों जागा,
दिन-दिन भर जागा,
सारे जीवन जागा!
तन पर भूरी-भूरी गर्द
लपेटे बैठा हूँ!
दलदल-दलदल
पाँव धँसे हैं,
गर्दन पर, टख़नों पर
नाग कसे हैं,
काले-काले ज़हरीले
नाग कसे हैं!
शैया पर
आग बिछाए बैठा हूँ!
धायँ-धायँ!
दहकाए बैठा हूँ!

[10] अतिचार
अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधें का विश्वास _
नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्व उपासना
कठिन सिद्व साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
वचन-वायदे!
और _
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
पाप-पुण्य की,
छल _
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
उतर आता है!
संयम के लौह-स्तम्भ
टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
डूब बह जाते हैं।
जब भूकम्प वासना का
'तीव्रानुराग' का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
हर पुख्ता-पुख्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
जाता है भूल!

[11] पूर्वाभास
बहुत पीछे
छोड़ आये हैं
प्रेम-संबंधों
शत्रुताओं के
अधजले शव!
खामोश है
बरसों, बरसों से
तड़पता / चीखता
दम तोड़ता रव!
इस समय तक _
सूख कर अवशेष
खो चुके होंगे
हवा में!
बह चुके होंगे
अनगिनत
बारिशों में!
जब से छोड़ आया
लौटा नहीं;
फिर, आज यह क्यों
प्रेत छाया
सामने मेरे?
शायद,
हश्र अब होना
यही है _
मेरे समूचे
अस्तित्व का!
हर ज्वालामुखी को
एक दिन
सुप्त होना है!
सदा को
लुप्त होना है!

[12] अवधूत
लोग हैं _
ऐसी हताशा में
व्यग्र हो
कर बैठते हैं
आत्म-हत्या!
या
खो बैठते हैं संतुलन
तन का / मन का!
व हो विक्षिप्त
रोते हैं - अकारण!
हँसते हैं - अकारण!
किन्तु तुम हो
स्थिर / स्व-सीमित / मौन / जीवित / संतुलित
अभी तक!
वस्तुत:
जिसने जी लिया संन्यास
मरना और जीना
एक है उसके लिए!
विष हो या अमृत
पीना
एक है उसके लिए!

[13] सार-तत्व
सकते में क्यों हो,
अरे!
नहीं आ सकते
जब काम
किसी के तुम _
कोई क्यों आये
पास तुम्हारे?
चुप रहो,
सब सहो!
पड़े रहो
मन मारे,
यहाँ-वहाँ!
कोई सुने
तुम्हारे अनुभव,
कोई सुने
तुम्हारी गाथा,
नहीं समय है
पास किसी के!
निष्फल -
ऐसा करना
आस किसी से!
अच्छा हो
सूने कमरे की दीवारों पर
शब्दांकित कर दो,
नाना रंगों से
चित्रांकित कर दो
अपना मन!
शायद, कोई कभी
पढ़े / गुने!
या
किसी रिकॉर्डिंग-डेक में
भर दो
अपनी करुण कहानी
बख़ुद ज़बानी!
शायद, कोई कभी
सुने!
लेकिन
निश्चिन्त रहो _
कहीं न फैले दुर्गन्ध
इसलिए तुरन्त
लोग तुम्हें
गड्ढ़े में गाड़ / दफ़न
या
कर सम्पन्न दहन
विधिवत्
कर देंगे ख़ाक / भस्म
ज़रूर!
विधिवत्
पूरी कर देंगे
आख़िरी रस्म
ज़रूर!
(14) निष्कर्ष
ऊहापोह
(जितना भी)
ज़रूरी है।
विचार-विमर्श
हो परिपक्व जितने भी समय में।
तत्त्व-निर्णय के लिए
अनिवार्य
मीमांसा-समीक्षा / तर्क / विशद विवेचना
प्रत्येक वांछित कोण से।
क्योंकि जीवन में
हुआ जो भी घटित -
वह स्थिर सदा को,
एक भी अवसर नहीं उपलब्ध
भूल-सुधार को।
सम्भव नहीं
किंचित बदलना
कृत-क्रिया को।
सत्य _
कर्ता और निर्णायक
तुम्हीं हो,
पर नियामक तुम नहीं।
निर्लिप्त हो
परिणाम या फल से।
(विवशता)
सिध्द है _
जीवन : परीक्षा है कठिन
पल-पल परीक्षा है कठिन।
वीक्षा करो
हर साँस गिन-गिन,
जो समक्ष
उसे करो स्वीकार
अंगीकार!
(15) तुलना
जीवन
कोई पुस्तक तो नहीं
कि जिसे
सोच-समझ कर
योजनाबद्व ढंग से
लिखा जाए / रचा जाए!
उसकी विषयवस्तु को _
क्रमिक अधयायों में
सावधानी से बाँटा जाए,
मर्मस्पर्शी प्रसंगों को छाँटा जाए!
स्व-अनुभव से, अभ्यास से
सुन्दर व कलात्मक आकार में
ढाला जाए,
शैथिल्य और बोझिलता से बचा कर
चमत्कार की चमक में उजाला जाए!
जीवन की कथा
स्वत: बनती-बिगड़ती है
पूर्वापर संबंध नहीं गढ़ती है!
कब क्या घटित हो जाए
कब क्या बन-सँवर जाए,
कब एक झटके में
सब बिगड़ जाए!
जीवन के कथा-प्रवाह में
कुछ भी पूर्व-निश्चित नहीं,
अपेक्षित-अनपेक्षित नहीं,
कोई पूर्वाभास नहीं,
आयास-प्रयास नहीं!
ख़ूब सोची-समझी
शतरंज की चालें
दूषित संगणक की तरह
चलने लगती हैं,
नियंत्रक को ही
छलने लगती हैं
जीती बाज़ी
हार में बदलने लगती है!
या अचानक
अदृश्य हुआ वर्तमान
पुन: उसी तरतीब से
उतर आता है
भूकम्प के परिणाम की तरह!
अपने पूर्ववत् रूप-नाम की तरह!
(16) अनुभूति
जीवन-भर
अजीबोगरीब मूर्खताएँ
करने के सिवा,
समाज का
थोपा हुआ कर्ज़
भरने के सिवा,
क्या किया?
ग़लतियाँ कीं
ख़ूब ग़लतियाँ कीं,
चूके
बार-बार चूके!
यों कहें -
जिये;
लेकिन जीने का ढंग
कहाँ आया?
(ढोंग कहाँ आया!)
और अब सब-कुछ
भंग-रंग
हो जाने के बाद _
दंग हूँ,
बेहद दंग हूँ!
विवेक अपंग हूँ!
विश्वास किया
लोगों पर,
अंध-विश्वास किया
अपनों पर!
और धूर्त
साफ़ कर गये सब
घर-बार,
बरबाद कर गये
जीवन का
रूप-रंग सिँगार!
छद्म थे, मुखौटे थे,
सत्य के लिबास में
झूठे थे,
अजब ग़ज़ब के थे!
ज़िन्दगी गुज़र जाने के बाद,
नाटक की
फल-प्राप्ति / समाप्ति के क़रीब,
सलीब पर लटके हुए
सचाई से रू-ब-रू हुए जब _
अनुभूत हुए
असंख्य विद्युत-झटके
तीव्र अग्नि-कण!
ऐंठते
दर्द से आहत
तन-मन!
हैरतअंगेज़ है, सब!
सब, अद्भुत है!
अस्तित्व कहाँ हैं मेरा,
मेरा बुत है!
अब,
पछतावे का कड़वा रस
पीने के सिवा
बचा क्या?
ज़माने को
न थी, न है
रत्ती-भर
शर्म-हया!
(17) आह्लाद
बदली छायी
बदली छायी!
दिशा-दिशा में
बिजली कौंधी,
मिट्टी महकी
सोंधी-सोंधी!
युग-युग
विरह-विरस में
डूबी,
एकाकी
घबरायी
ऊबी,
अपने
प्रिय जलधर से
मिल कर,
हाँ, हुई सुहागिन
धन्य धरा,
मेघों के रव से
शून्य भरा!
वर्षा आयी
वर्षा आयी!
उमड़ी
शुभ
घनघोर घटा,
छायी
श्यामल दीप्त छटा!
दुलहिन झूमी
घर-घर घूमी
मनहर स्वर में
कजली गायी!
बदली छायी
वर्षा आयी!
(18) आसक्ति
भोर होते _
द्वार वातायन झरोखों से
उचकतीं-झाँकतीं उड़तीं
मधुर चहकार करतीं
सीधी सरल चिड़ियाँ
जगाती हैं,
उठाती हैं मुझे!
रात होते
निकट के पोखरों से
आ - आ
कभी झींगुर; कभी दर्दुर
गा - गा
सुलाते हैं,
नव-नव स्वप्न-लोकों में
घुमाते हैं मुझे!
दिन भर _
रँग-बिरंगे दृश्य-चित्रों से
मोह रखता है
अनंग-अनंत नीलाकाश!
रात भर _
नभ-पर्यंक पर
रुपहले-स्वर्णिम सितारों की छपी
चादर बिछाए
सोती ज्योत्स्ना
कितना लुभाती है!
अंक में सोने बुलाती है!
ऐसे प्यार से
मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा - इतनी मनोहर
छोड़ दूँ कैसे?
(19) मंत्र-मुग्ध
गहन पहेली,
ओ लता - चमेली!
अपने
फूलों में / अंगों में
इतनी मोहक सुगन्ध
अरे,
कहाँ से भर लायीं!
ओ श्वेता!
ओ शुभ्रा!
कोमल सुकुमार सहेली!
इतना आकर्षक मनहर सौन्दर्य
कहाँ से हर लायीं!
धर लायीं!
सुवास यह
बाहर की, अन्तर की
तन की, आत्मा की
जब-जब
करता हूँ अनुभूत _
भूल जाता हूँ
सांसारिकता,
अपना अता-पता!
कुछ क्षण को इस दुनिया में
खो जाता हूँ,
तुमको एकनिष्ठ
अर्पित हो जाता हूँ!
ओ सुवासिका!
ओ अलबेली!
ओ री, लता - चमेली!
(20) हवा
ओ प्रिय
सुख-गंध भरी
मदमत्ता हवा!
मेरी ओर बहो _
हलके-हलके!
बरसाओ
मेरे
तन पर, मन पर
शीतल छींटें जल के!
ओ प्यारी
लहर-लहर लहराती
उन्मत्ता हवा!
नि:संकोच करो
बढ़ कर उष्ण स्पर्श
मेरे तन का!
ओ, सर-सर स्वर भरती
मधुरभाषिणी
मुखर हवा!
चुपके-चुपके
मेरे कानों में
अब तक अनबोला
कोई राज़ कहो
मन का!
आओ!
मुझ पर छाओ!
खोल लाज-बंध
आज
आवेष्टित हो जाओ,
आजीवन
अनुबन्धित हो जाओ!
(21) जिजीविषु
अचानक
आज जब देखा तुम्हें _
कुछ और जीना चाहता हूँ!
गुज़र कर
बहुत लम्बी कठिन सुनसान
जीवन-राह से,
प्रतिपल झुलस कर
ज़िन्दगी के सत्य से
उसके दहकते दाह से,
अचानक
आज जब देखा तुम्हें _
कड़वाहट भरी इस ज़िन्दगी में
विष और पीना चाहता हूँ!
कुछ और जीना चाहता हूँ!
अभी तक
प्रेय!
कहाँ थीं तुम?
नील-कुसुम!
(22) राग-संवेदन / 2
तुम _
बजाओ साज़
दिल का,
ज़िन्दगी का गीत
मैं _
गाऊँ!
उम्र यों
ढलती रहे,
उर में
धड़कती साँस यह
चलती रहे!
दोनों हृदय में
स्नेह की बाती लहर
बलती रहे!
जीवन्त प्राणों में
परस्पर
भावना - संवेदना
पलती रहे!
तुम _
सुनाओ
इक कहानी प्यार की
मोहक,
सुन जिसे
मैं _
चैन से
कुछ क्षण
कि सो जाऊँ!
दर्द सारा भूल कर
मधु-स्वप्न में
बेफ़िक्र खो जाऊँ!
तुम _
बहाओ प्यार-जल की
छलछलाती धार,
चरणों पर तुम्हारे
स्वर्ग - वैभव
मैं _
झुका लाऊँ!
(23) वरदान
याद आता है
तुम्हारा प्यार!
तुमने ही दिया था
एक दिन
मुझको
रुपहले रूप का संसार!
सज गये थे
द्वार-द्वार सुदर्श
बन्दनवार!
याद आता है
तुम्हारा प्यार!
प्राणप्रद उपहार!
(24) स्मृति
याद आते हैं
तुम्हारे सांत्वना के बोल!
आया
टूट कर
दुर्भाग्य के घातक प्रहारों से
तुम्हारे अंक में
पाने शरण!
समवेदना अनुभूति से भर
ओ, मधु बाल!
भाव-विभोर हो
तत्क्षण
तुम्हीं ने प्यार से
मुझको
सहर्ष किया वरण!
दी विष भरे आहत हृदय में
शान्ति मधुजा घोल!
खड़ीं
अब पास में मेरे,
निरखतीं
द्वार हिय का खोल!
याद आते हैं
प्रिया!
मोहन तुम्हारे
सांत्वना के बोल!
(25) बहाना
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
मनुहार-सुख
अनुभूत करने के लिए,
एकरसता-भार से
ऊबे क्षणों में
रंग जीवन का
नवीन अपूर्व
भरने के लिए!
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
जन्म-जन्मान्तर पुरानी
प्रीति को
फिर-फिर निखरने के लिए,
इस बहाने
मन-मिलन शुभ दीप
ऑंगन-द्वार
धरने के लिए!
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
अपार-अपार भाता है
तुम्हारा रागमय
बीते दिनों का रूठना!
(26) दूरवर्ती से
शेष जीवन
जी सकूँ सुख से
तुम्हारी याद
काफ़ी है!
कभी
कम हो नहीं
एहसास जीवन में
तुम्हारा
यह बिछोह-विषाद
काफ़ी है!
तुम्हारी भावनाओं की
धरोहर को
सहेजा आज-तक
मन में,
अमरता के लिए
केवल उन्हीं का
सरस गीतों में
सहज अनुवाद
काफ़ी है!
(27) बोध
भूल जाओ _
मिले थे हम
कभी!
चित्र जो अंकित हुए
सपने थे
सभी!
भूल जाओ _
रंगों को
बहारों को,
देह से : मन से
गुज़रती
कामना-अनुभूत धारों को!
भूल जाओ _
हर व्यतीत-अतीत को,
गाये-सुनाये
गीत को : संगीत को!
(28) श्रेयस्
सृष्टि में वरेण्य
एक-मात्रा
स्नेह-प्यार भावना!
मनुष्य की
मनुष्य-लोक मध्य,
सर्व जन-समष्टि मध्य
राग-प्रीति भावना!
समस्त जीव-जन्तु मध्य
अशेष हो
मनुष्य की दयालुता!
यही
महान श्रेष्ठतम उपासना!
विश्व में
हरेक व्यक्ति
रात-दिन / सतत
यही करे
पवित्र प्रकर्ष साधना!
व्यक्ति-व्यक्ति में जगे
यही
सरल-तरल अबोध निष्कपट
एकनिष्ठ चाहना!
(29) संवेदना
काश, ऑंसुओं से मुँह धोया होता,
बीज प्रेम का मन में बोया होता,
दुर्भाग्यग्रस्त मानवता के हित में
अपना सुख, अपना धन खोया होता!
(30) दो ध्रुव
स्पष्ट विभाजित है
जन-समुदाय _
समर्थ / असहाय।
हैं एक ओर _
भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविध-साधन-सम्पन्न
प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगले हैं / चकले हैं,
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत,
हैरत है, हैरत!
दूसरी तरफ़ _
जन हैं
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रस्त,
अनपढ़,
दलित असंगठित,
खेतों - गाँवों / बाजारों - नगरों में
श्रमरत,
शोषित / वंचित / शंकित!
(31) विपत्ति-ग्रस्त
बारिश
थमने का नाम नहीं लेती,
जल में डूबे
गाँवों-क़स्बों को
थोड़ा भी
आराम नहीं देती!
सचमुच,
इस बरस तो क़हर ही
टूट पड़ा है,
देवा, भौचक खामोश
खड़ा है!
ढह गया घरौंधा
छप्पर-टप्पर,
बस, असबाब पड़ा है
औंधा!
आटा-दाल गया सब बह,
देवा, भूखा रह!
इंधन गीला
नहीं जलेगा चूल्हा,
तैर रहा है चौका
रहा-सहा!
घन-घन करते
नभ में वायुयान
मँडराते
गिध्दों जैसे!
शायद,
नेता / मंत्री आये
करने चहलक़दमी,
उत्तार-दक्षिण
पूरब-पश्चिम
छायी
ग़मी-ग़मी!
अफ़सोस
कि बारिश नहीं थमी!
(32) विजयोत्सव
एरोड्रोम पर
विशेष वायुयान में
पार्टी का
लड़ैता नेता आया है,
'शताब्दी' से
स्टेशन पर
कांग्रेस का
चहेता नेता आया है,
'ए-सी एम्बेसेडर' से
सड़क-सड़क,
दल का
जेता नेता आया है,
भरने जयकारा,
पुरज़ोर बजाने
सिंगा, डंका, डिंडिम,
पहुँचा
हुर्रा-हुर्रा करता
सैकड़ों का हुजूम!
पालतू-फालतू बकरियों का,
शॉल लपेटे सीधी मूर्ख भेड़ों का,
संडमुसंड जंगली वराहों का,
बुज़दिल भयभीत सियारों का!
में-में करता
गुर्रा-गुर्रा हुंकृति करता
करता हुऑं-हुऑं!
चिल्लाता _
लूट-लूट,
प्रतिपक्षी को ....
शूट-शूट!
जय का जश्न मनाता
'गब्बर' नेता का!
(33) हैरानी
कितना ख़ुदग़रज़
हो गया इंसान!
बड़ा ख़ुश है
पाकर तनिक-सा लाभ _
बेच कर ईमान!
चंद सिक्कों के लिए
कर आया
शैतान को मतदान,
नहीं मालूम
'ख़ुददार' का मतलब
गट-गट पी रहा अपमान!
रिझाने मंत्रियों को
उनके सामने
कठपुतली बना निष्प्राण,
अजनबी-सा दीखता _
आदमी की
खो चुका पहचान!
(34) समता-स्वप्न
विश्व का इतिहास
साक्षी है _
अभावों की
धधकती आग में
जीवन
हवन जिनने किया,
अन्याय से लड़ते
व्यवस्था को बदलते
पीढ़ियों
यौवन
दहन जिनने किया,
वे ही
छले जाते रहे
प्रत्येक युग में,
क्रूर शोषण-चक्र में
अविरत
दले जाते रहे
प्रत्येक युग में!
विषमता
और ...
बढ़ती गयी,
बढ़ता गया
विस्तार अन्तर का!
हुआ धनवान
और साधनभूत,
निर्धन -
और निर्धन,
अर्थ गौरव हीन,
हतप्रभ दीन!
लेकिन;
विश्व का इतिहास
साक्षी है _
परस्पर
साम्यवाही भावना इंसान की
निष्क्रिय नहीं होगी,
न मानेगी पराभव!
लक्ष्य तक पहुँचे बिना
होगी नहीं विचलित,
न भटकेगा / हटेगा
एक क्षण
अवरुद्व हो लाचार
समता-राह से मानव!
(35) अपहर्ता
धूर्त _
सरल दुर्बल को
ठगने
धोखा देने
बैठे हैं तैयार!
धूर्त _
लगाये घात,
छिपे
इर्द-गिर्द
करने गहरे वार!
धूर्त -
फ़रेबी कपटी
चौकन्ने
करने छीना-झपटी,
लूट-मार
हाथ-सफ़ाई
चतुराई
या
सीधे मुष्टि-प्रहार!
धूर्त _
हड़पने धन-दौलत
पुरखों की वैध विरासत
हथियाने माल-टाल
कर दूषित बुद्वि-प्रयोग!
धृष्ट,
दु:साहसी,
निडर!
बना रहे
छद्म लेख-प्रलेख!
चमत्कार!
विचित्र चमत्कार!
(36) दृष्टि
जीवन के कठिन संघर्ष में
हारो हुओ!
हर क़दम
दुर्भाग्य के मारो हुओ!
असहाय बन
रोओ नहीं,
गहरा ऍंधेरा है,
चेतना खोओ नहीं!
पराजय को
विजय की सूचिका समझो,
ऍंधेरे को
सूरज के उदय की भूमिका समझो!
विश्वास का यह बाँध
फूटे नहीं!
नये युग का सपन यह
टूटे नहीं!
भावना की डोर यह
छूटे नहीं!
(37) परिवर्तन
मौसम
कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!
सपना _
जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!
समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा, छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!
साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम
कितना बदल गया!
(38) युगान्तर
अब तो
धरती अपनी,
अपना आकाश है!
सूर्य उगा
लो
फैला सर्वत्र
प्रकाश है!
स्वधीन रहेंगे
सदा-सदा
पूरा विश्वास है!
मानव-विकास का चक्र
न पीछे मुड़ता
साक्षी इतिहास है!
यह
प्रयोग-सिद्ध
तत्व-ज्ञान
हमारे पास है!
(39) प्रार्थना
सूरज,
ओ, दहकते लाल सूरज!
बुझे
मेरे हृदय में
ज़िन्दगी की आग
भर दो!
थके निष्क्रिय
तन को
स्फूर्ति दे
गतिमान कर दो!
सुनहरी धूप से,
आलोक से -
परिव्याप्त
हिम / तम तोम
हर लो!
सूरज,
ओ लहकते लाल सूरज!
(40) प्रबोध
नहीं निराश / न ही हताश!
सत्य है-
गये प्रयत्न व्यर्थ सब
नहीं हुआ सफल,
किन्तु हूँ नहीं
तनिक विकल!
बार-बार
हार के प्रहार
शक्ति-स्रोत हों,
कर्म में प्रवृत्ता मन
ओज से भरे
सदैव ओत-प्रोत हों!
हों हृदय उमंगमय,
स्व-लक्ष्य की
रुके नहीं तलाश!
भूल कर
रुके नहीं कभी
अभीष्ट वस्तु की तलाश!
हो गये निराश
तय विनाश!
हो गये हताश
सर्वनाश!
(41) सुखद
सहधर्मी / सहकर्मी
खोज निकाले हैं
दूर - दूर से
आस - पास से
और जुड़ गया है
अंग - अंग
सहज
किन्तु / रहस्यपूर्ण ढंग से
अटूट तारों से,
चारों छोरों से
पक्के डोरों से!
अब कहाँ अकेला हूँ ?
कितना विस्तृत हो गया अचानक
परिवार आज मेरा यह!
जाते - जाते
कैसे बरस पड़ा झर - झर
विशुध्द प्यार घनेरा यह!
नहलाता आत्मा को
गहरे - गहरे!
लहराता मन का
रिक्त सरोवर
ओर - छोर
भरे - भरे!
(42) बदलो!
सड़ती लाशों की
दुर्गन्ध लिए
छूने
गाँवों-नगरों के
ओर-छोर
जो हवा चली _
उसका रुख़ बदलो!
ज़हरीली गैसों से
अलकोहल से
लदी-लदी
गाँवों-नगरों के
नभ-मंडल पर
जो हवा चली
उससे सँभलो!
उसका रुख़ बदलो!
(43) बचाव
कैसी चली हवा!
हर कोई
केवल
हित अपना
सोचे,
औरों का हिस्सा
हड़पे,
कोई चाहे कितना
तड़पे!
घर भरने अपना
औरों की
बोटी-बोटी काटे
नोचे!
इस
संक्रामक सामाजिक
बीमारी की
क्या कोई नहीं दवा?
कैसी चली हवा!
(44) पहल
घबराए
डरे-सताए
मोहल्लों में / नगरों में / देशों में
यदि -
सब्र और सुकून की
बहती
सौम्य-धारा चाहिए,
आदमी-आदमी के बीच पनपता
यदि -
प्रेम-बंध गहरा भाईचारा चाहिए,
तो _
विवेकशून्य अंध-विश्वासों की
कन्दराओं में
अटके-भटके
आदमी को
इंसान नया बनना होगा।
युगानुरूप
नया समाज-शास्त्र
विरचना होगा!
तमाम
खोखले अप्रासंगिक
मज़हबी उसूलों को,
आडम्बरों को
त्याग कर
वैज्ञानिक विचार-भूमि पर
नयी उन्नत मानव-संस्कृति को
गढ़ना होगा।
अभिनव आलोक में
पूर्ण निष्ठा से
नयी दिशा में
बढ़ना होगा!
इंसानी रिश्तों को
सर्वोच्च मान कर
सहज स्वाभाविक रूप में
ढलना होगा,
स्थायी शान्ति-राह पर
आश्वस्त भाव से
अविराम अथक
चलना होगा!
कल्पित दिव्य शक्ति के स्थान पर
'मनुजता अमर सत्य'
कहना होगा!
सम्पूर्ण विश्व को
परिवार एक
जान कर , मान कर
परस्पर मेल-मिलाप से
रहना होगा!
वर्तमान की चुनौतियों से
जूझते हुए
जीवन वास्तव को
चुनना होगा!
हर मनुष्य की
राग-भावना, विचारणा को
गुनना-सुनना होगा!
(45) अद्भुत
आदमी _
अपने से पृथक धर्म वाले
आदमी को
प्रेम-भाव से _ लगाव से
क्यों नहीं देखता?
उसे ग़ैर मानता है,
अक्सर उससे वैर ठानता है!
अवसर मिलते ही
अरे, ज़रा भी नहीं झिझकता
देने कष्ट,
चाहता है देखना उसे
जड-मूल-नष्ट!
देख कर उसे
तनाव में
आ जाता है,
सर्वत्र
दुर्भाव प्रभाव
घना छा जाता है!
ऐसा क्यों होता है?
क्यों होता है ऐसा?
कैसा है यह आदमी?
गज़ब का
आदमी अरे, कैसा है यह?
ख़ूब अजीबोगरीब मज़हब का
कैसा है यह?
सचमुच,
डरावना वीभत्स काल जैसा!
जो - अपने से पृथक धर्म वाले को
मानता-समझता
केवल ऐसा-वैसा!
(46) स्वप्न
पागल सिरफिरे
किसी भटनागर ने
माननीय प्रधान-मंत्री ......... की
हत्या कर दी,
भून दिया गोली से!!
ख़बर फैलते ही
लोगों ने घेर लिया मुझको _
'भटनागर है,
मारो ... मारो ... साले को!
हत्यारा है ... हत्यारा है!'
मैंने उन्हें बहुत समझाया
चीख-चीख कर समझाया _
भाई, मैं वैसा 'भटनागर' नहीं!
अरे, यह तो फ़कत नाम है मेरा,
उपनाम (सरनेम) नहीं!
मैं
'महेंद्रभटनागर हूँ,
या 'महेंद्र' हूँ
भटनागर-वटनागर नहीं,
भई, कदापि नहीं!
ज़रा, सोचो-समझो।
लेकिन भीड़ सोचती कब है?
तर्क सचाई सुनती कब है?
सब टूट पड़े मुझ पर
और राख कर दिया मेरा घर!!
इतिहास गवाही दे _
किन-किन ने / कब-कब / कहाँ-कहाँ
झेली यह विभीषिका,
यह ज़ुल्म सहा?
कब-कब / कहाँ-कहाँ
दरिन्दगी की ऐसी रौ में
मानव समाज
हो पथ-भ्रष्ट बहा?
वंश हमारा
धर्म हमारा
जोड़ा जाता है क्यों
नामों से, उपनामों से?
कोई सहज बता दे _
ईसाई हूँ या मुस्लिम
या फिर हिन्दू हूँ
(कार्यस्थ एक,
शूद्र कहीं का!)
कहा करे कि
'नाम है मेरा - महेंद्रभटनागर,
जिसमें न छिपा है वंश, न धर्म!'
(न और कोई मर्म!)
अत: कहना सही नहीं -
'क्या धरा है नाम में!'
अथवा
'जात न पूछो साधु की!'
हे कबीर!
क्या कोई मानेगा बात तुम्हारी?
आख़िर,
कब मानेगा बात तुम्हारी?
'शिक्षित' समाज में,
'सभ्य सुसंस्कृत' समाज में
आदमी - सुरक्षित है कितना?
आदमी - अरक्षित है कितना?
हे सर्वज्ञ इलाही,
दे, सत्य गवाही!
(47) यथार्थता
जीवन जीना _
दूभर - दुर्वह
भारी है!
मानों
दो - नावों की
विकट सवारी है!
पैरों के नीचे
विष - दग्ध दुधारी आरी है,
कंठ - सटी
अति तीक्ष्ण कटारी है!
गल - फाँसी है,
हर वक्त
बदहवासी है!
भगदड़ मारामारी है,
ग़ायब
पूरनमासी,
पसरी सिर्फ़
घनी अंधियारी है!
जीवन जीना _
लाचारी है!
बेहद भारी है!
(48) खिलाड़ी
दौड़ रहा हूँ
बिना रुके / अविश्रांत
निरन्तर दौड़ रहा हूँ!
दिन - रात
रात - दिन
हाँफ़ता हुआ
बद-हवास,
जब -तब
गिर -गिर पड़ता
उठता,
धड़धड़ दौड़ निकलता!
लगता है _
जीवन - भर
अविराम दौड़ते रहना
मात्र नियति है मेरी!
समयान्तर की सीमाओं को
तोड़ता हुआ
अविरल दौड़ रहा हूँ!
बिना किये होड़ किसी से
निपट अकेला,
देखो _
किस क़दर तेज़ _ और तेज़
दौड़ रहा हूँ!
तैर रहा हूँ
अविरत तैर रहा हूँ
दिन - रात
रात - दिन
इधर - उधर
झटकता - पटकता
हाथ - पैर
हारे बग़ैर,
बार - बार
फिचकुरे उगलता
तैर रहा हूँ!
यह ओलम्पिक का
ठंडे पानी का तालाब नहीं,
खलबल खौलते
गरम पानी का
भाप छोड़ता
तालाब है!
कि जिसकी छाती पर
उलटा -पुलटा
विरुध्द - क्रम
देखो,
कैसा तैर रहा हूँ!
अगल - बगल
और - और
तैराक़ नहीं हैं
केवल मैं हूँ
मत्स्य सरीखा
लहराता तैर रहा हूँ!
लगता है _
अब, ख़ैर नहीं
कब पैर जकड़ जाएँ
कब हाथ अकड़ जाएँ।
लेकिन, फिर भी तय है _
तैरता रहूंगा, तैरता रहूंगा!
क्योंकि
ख़ूब देखा है मैंने
लहरों पर लाशों को
उतराते ... बहते!
कूद - कूद कर
लगा रहा हूँ छलाँग
ऊँची - लम्बी
तमाम छलाँग-पर-छलाँग!
दिन - रात
रात - दिन
कुंदक की तरह
उछलता हूँ
बार - बार
घनचक्कर-सा लौट -लौट
फिर - फिर कूद उछलता हूँ!
तोड़ दिये हैं पूर्वाभिलेख
लगता है _
पैमाने छोटे पड़ जाएंगे!
उठा रहा हूँ बोझ
एक-के-बाद-एक
भारी _ और अधिक भारी
और ढो रहा हूँ
यहाँ - वहाँ
दूर - दूर तक _
इस कमरे से उस कमरे तक
इस मकान से उस मकान तक
इस गाँव-नगर से उस गाँव-नगर तक
तपते मरुथल से शीतल हिम पर
समतल से पर्वत पर!
लेकिन
मेरी हुँकृति से
थर्राता है आकाश - लोक,
मेरी आकृति से
भय खाता है मृत्यु-लोक!
तय है
हारेगा हर हृदयाघात,
लुंज पक्षाघात
अमर आत्मा के सम्मुख!
जीवन्त रहूंगा
श्रमजीवी मैं,
जीवन-युक्त रहूंगा
उन्मुक्त रहूंगा!
(49) सिफ़त
यह
आदमी है _
हर मुसीबत
झेल लेता है!
विरोधी ऑंधियों के
दृढ़ प्रहारों से,
विकट विपरीत धारों से
निडर बन
खेल लेता है!
उसका वेगवान् अति
गतिशील जीवन-रथ
कभी रुकता नही,
चाहे कहीं धँस जाय या फँस जाय;
अपने
बुध्दि-बल से / बाहु-बल से
वह बिना हारे-थके
अविलम्ब पार धकेल लेता है!
यह
आदमी है / संयमी है
आफ़तें सब झेल लेता है!
(50) बोध-प्राप्ति
परिपक्व
कड़वे अनुभवों ने ही
बनाया है मुझे!
आदमी की क्षुद्रताओं ने
सही जीना
सिखाया है मुझे!
विश्वासघातों ने
मोह से कर मुक्त
भेद जीवन का
बताया है मुझे!
ज़माने ने सताया जब
बेइंतिहा,
काव्य में पीड़ा
तभी तो गा सका,
मर्माहत हुआ
अपने-परायों से
तभी तो मर्म
जीवन का / जगत का
पा सका!
**-**
रचनाकार परिचय -
महेंद्र भटनागर (डॉ.)
एम.ए., पी-एच. डी. (हिंदी)।
जन्म-तिथि _ 26 जून, 1926; जन्म-स्थान _ झाँसी (उ.प्र. भारत)।
व्यवसाय / सम्प्रति _ अध्यापन, मध्य-प्रदेश महाविद्यालयीन शिक्षा / शोध-निर्देशक : हिन्दी भाषा एवं
साहित्य।
कृतियाँ µ कविता _ तारों के गीत (1949), टूटती शृंखलाएँ (1949), बदलता युग (1953), अभियान
(1954), अंतराल (1954), विहान (1956), नयी चेतना (1956), मधुरिमा (1959), जिजीविषा (1962),
संतरण (1963), चयनिका (1966), बूँद नेह की : दीप हृदय का (1967) / हर सुबह सुहानी हो! (1984) / महेंद्र भटनागर के गीत (2001) / गीति-संगीति (2006), कविश्री : महेंद्रभटनागर (1970), संवर्त (1972), संकल्प (1977), जूझते हुए (1984), जीने के लिए (1990), आहत युग (1997), अनुभूत क्षण (2001),
उमंग तथा अन्य कविताएँ (2001), डा. महेंद्र भटनागर की कविता (2002), मृत्यु-बोध : जीवन-बोध
(2002 ), राग-संवेदन (2005), कविताएँ : एक बेहतर दुनिया के लिए (2006), डा. महेंद्र भटनागर की
कविता-यात्रा (2006), एक मुट्ठी रोशनी (2006), ज़िन्दगीनामा; आलोचना µ आधुनिक साहित्य और कला (1956), दिव्या : एक अध्ययन (1956) / दिव्या : विचार और कला (1971), विजय-पर्व : एक अध्ययन
(1957), समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद (1957), नाटककार हरिकृष्ण 'प्रेमी' और 'संवत्-प्रवर्तन'
(1961), पुण्य-पर्व आलोक (1962), हिन्दी कथा-साहित्य : विविध आयाम (1988), नाटय-सिध्दान्त और
हिन्दी नाटक (1992); एकांकी _ अजेय आलोक (1962); रेखाचित्र / लघुकथाएँ µ लड़खड़ाते क़दम
(1952), विकृतियाँ (1958), विकृत रेखाएँ : धुँधले चित्र (1966); बाल व कैशोर-साहित्य µ हँस-हँस गाने
गाएँ हम! (1957), बच्चों के रूपक (1958) / स्वार्थी दैत्य एवं अन्य रूपक (1995), देश-देश की बातें
(1967) / देश-देश की कहानी (1982), जय-यात्रा (1971), दादी की कहानियाँ (1974)
विशिष्ट _ डा. महेंद्र भटनागर-समग्र (कविता-खंड 1,2,3 / आलोचना-खंड 4,5 / विविध-खंड 6 : (2002)
अनुवाद _ कविताएँ अनेक विदेशी भाषाओं एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार
प्रकाशित।
संपादन _ '
सन्ध्या' (मासिक / उज्जैन / 1948-49), 'प्रतिकल्पा' (त्रौमासिक / उज्जैन / 1958 ),
कविश्री : 'अंचल' (1969), स्वातंत्रयोत्तार हिन्दी साहित्य (1969), गोदान-विमर्श (1983)
अध्ययन _
कवि महेंद्र भटनागर : सृजन और मूल्यांकन / सं. डा. दुर्गाप्रसाद झाला (1972),
कवि महेंद्र भटनागर का रचना-संसार / सं. डा. विनयमोहन शर्मा (1980),
डा. महेंद्र भटनागर की काव्य-साधना / ममता मिश्रा (1982),
प्रगतिवादी कवि महेंद्र भटनागर : अनुभूति और अभिव्यक्ति / डा. माधुरी शुक्ला (1985),
महेंद्र भटनागर और उनकी सर्जनशीलता / डा. विनीता मानेकर (1990),
सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि डा. महेंद्र भटनागर / सं. डा. हरिचरण शर्मा (1997),
डा. महेंद्र भटनागर के काव्य का वैचारिक एवं संवेदनात्मक धरातल / डा. रजत षड़ंगी (2003),
महेंद्र भटनागर की काव्य-संवेदना : अन्त:अनुशासनीय आकलन / डा. वीरेंद्र सिंह (2004),
डा. महेंद्र भटनागर का कवि-व्यक्तित्व / सं. डा. रवि रंजन (2005),
डा.महेंद्रभटनागर का रचना-कर्म / डा. किरणशंकर प्रसाद (2006),
डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-सृष्टि / सं. डा. रामसजन पाण्डेय;
पुरस्कार-सम्मान _ मध्य-भारत एवं मध्य-प्रदेश की कला व साहित्य-परिषदों द्वारा सन् 1952, 1958, 1960, 1985 में पुरस्कृत; मध्य-भारत हिन्दी साहित्य सभा, ग्वालियर द्वारा 'हिन्दी-दिवस 1979' पर सम्मान, 2 अक्टूबर 2004 को, 'गांधी-जयन्ती' के अवसर पर, 'ग्वालियर साहित्य अकादमी'-द्वारा 'डा. शिवमंगलसिंह'सुमन'- अलंकरण / सम्मान,मध्य-प्रदेश लेखक संघ, भोपाल द्वारा 'डा. संतोषकुमार तिवारी - समीक्षक-सम्मान' (2006) एवं अन्य अनेक सम्मान।
संपर्क : 110 बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (मध्य-प्रदेश)

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

Poems Of Dr. Mahendra Bhatnagar

महेंद्रभटनागर की कविताएँ


परिचय
उत्कृष्ट काव्य- संवेदना-समन्वित द्विभाषिक कवि : हिंदी और अंग्रेज़ी.
सन 1941 से काव्य-रचना आरम्भ. ‘विशाल भारत’, कोलकता [मार्च1944] में प्रथम कविता का प्रकाशन.
लगभग छ्ह- वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्र्योत्तर.
सामाजिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय चेतना-सम्पन्न रचनाकार. लब्ध-प्रतिष्ठ नवप्रगतिवादी- जनवादी कवि . अन्य प्रमुख काव्य- विषय : प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन. दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन ऒर जगत के प्रति आस्थावान कवि. अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक.
जन्म : 26 जून 1926 / झाँसी
(उ. प्र.)
शिक्षा : एम. ए. (1948), पी-एच. डी. (1957) नागपुर विश्वविद्याल से .
कार्य : कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय /
जीवाजी विश्वविद्यालयसे, ग्वालियर से प्रोफ़ेसर- अध्यापक पद से सेवा-निवृत.
सम्प्रति : शोध-निर्देशक हिंदी भाषा एवं साहित्य .
कार्यक्षेत्र: चम्बल-अंचल, मालवांचल, बुंदेलखंड .
प्रकाशन : ‘डा. महेंद्रभटनागर-समग्र’ छ्ह खंडों में उपलब्ध प्रकाशित काव्य-कृतियां 20.
अनुवाद : कविताएं अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित .
सम्पर्क : 110 बलवंतनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (म.प्र.)
फ़ोन : 0751-4092908



अंततः
दिख रहा अतीत साफ़ फिल्म की तरह —
सवा‌‌‍क्‌ रंगमय सजीव!
पृष्ठभूमि में ध्वनित अमंद वाद्य- गीत!
(द्रश्य वास्तविक अतीव!)

उतर-उभर रहे तमाम चित्र
हार / जीत के : शत्रु / मीत के,
क्रोध— आग के / नेह — राग के!

आह, ज़िंदगी थकी-थकी / बुझी-बुझी
अचान किसी पड़ाव पर
लहर - लहर ठहर गयी!
बिखर - बिखर सिमट गयी,
उलट - पुलट गयी!

अपूर्व शांति है, / न वाद या विवाद,
शेष सिर्फ़ याद!
दुराव है न भेद है!
न चाह है, न राह है!

 

सौन्दर्य
सुन्दरता क्या है?
जो मन को भाये / अतिशय भाये,
मन जिसको पाने ललचाये,
हो विस्मय-विमुग्ध
स्वेच्छिक बंधन में बँध जाये,
होंठों पर गान उतर आये,
जीवन जीने योग्य नज़र आये,
जो मानव को
अति मानव का उच्च धरातल दे,
आत्मा को उज्ज्वल शतदल दे!

असामाजिक परिवेश
आओ, आज अकेले होली खेलें!
आस-पास / दूर-दूर तक
बसे अपरिचित हैं,
अपने-अपने में सीमित हैं,
आपस में अनिमंत्रित हैं
मात्र अवांछित हैं,
आओ, आँगन में एकाकी
ख़ुद अपने ऊपर रंग उड़ेलें!

प्रेय
शीर्ष मूल्य है :
परोपकार,
स्वार्थ-मुक्‍त
निर्विकार ।

लक्ष्य है महान्‌ —
लोक-हित,
साधना सफल वही
रहे हृदय व बुद्धि
संतुलित!

अंतर
बचपन में हर बारिश में
कूद-कूद कर
कैसा अलमस्त नहाया हूँ!
चिल्ला-चिल्ला कर
कितने-कितने गीतों के
मुखड़े गाया हूँ!
जीवित है वह सब
स्मरण-शक्‍ति में मेरी ।

ज्यों-ज्यों बढ़ती उम्र गयी
बारिश से घटता गया लगाव,
न वैसा उत्साह रहा / न वैसा चाव,
तटस्थ रहा, / निर्लिप्त रहा!

अति वर्षा से कुछ आशंकित —
ढह जाए न टपकता घर मेरा,
दूर बसा मज़दूरों का डेरा,
बह जाए न कहीं
निर्धन मानवता का जीर्ण बसेरा!

 