सोमवार, 15 अक्तूबर 2007
SHORT POEMS
लघु कविताएँ
डा. महेंद्रभटनागर
परिचय
उत्कृष्ट काव्य- संवेदना-समन्वित द्विभाषिक कवि : हिंदी और अंग्रेज़ी.
सन 1941 से काव्य-रचना आरम्भ. ‘विशाल भारत’, कोलकता [मार्च1944] में प्रथम कविता का प्रकाशन.
लगभग छ्ह- वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्र्योत्तर.
सामाजिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय चेतना-सम्पन्न रचनाकार. लब्ध-प्रतिष्ठ नवप्रगतिवादी- जनवादी कवि . अन्य प्रमुख काव्य- विषय : प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन. दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन ऒर जगत के प्रति आस्थावान कवि. अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक.
जन्म : 26 जून 1926 / झाँसी
(उ. प्र.)
शिक्षा : एम. ए. (1948), पी-एच. डी. (1957) नागपुर विश्वविद्याल से .
कार्य : कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय /
जीवाजी विश्वविद्यालयसे, ग्वालियर से प्रोफ़ेसर- अध्यापक पद से सेवा-निवृत.
सम्प्रति : शोध-निर्देशक हिंदी भाषा एवं साहित्य .
कार्यक्षेत्र: चम्बल-अंचल, मालवांचल, बुंदेलखंड .
प्रकाशन : ‘डा. महेंद्रभटनागर-समग्र’ छ्ह खंडों में उपलब्ध प्रकाशित काव्य-कृतियां 20.
अनुवाद : कविताएं अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित .
सम्पर्क : 110 बलवंतनगर, गांधी रोड, ग्वालियर — 474 002 (म.प्र.)
फ़ोन : 0751-4092908
· अनुभूतियाँ
एक हताश व्यक्ति की
[1]
वेदना ओढ़े कहाँ जाएँ!
उठ रहीं लहरें अभोगे दर्द की
कैसे सहज बन मुस्कुराएँ!
रुँधा है कंठ
कैसे गीत में उल्लास गाएँ!
टूटे हाथ जब
कैसे बजाएँ साज़,
सन्न हैं जब पैर
कैसे झूम कर नाचें व थिरकें आज!
खंडित ज़िंदगी —
टुकड़े समेटे, अंग जोड़े, लड़खड़ाते
रे कहाँ जाएँ!
दिशा कोई हमें
हमदर्द कोई तो बताए!
[2]
अपना बसेरा छोड़ कर
अब हम कहाँ जाएँ?
नहीं कोई कहीं —
अपना समझ
जो राग से / सच्चे हृदय से
मुक्त अपनाए!
देखते ही तन
गले में डाल बाहें झूम जाए,
प्यार की लहरें उठें
जो शीर्ण इस अस्तित्व को
फिर-फिर समूचा चूम जाए!
शेष, हत वीरान यह जीवन
सदा को पा सके निस्तार,
ऐसी युक्ति कोई तो बताए!
[3]
बेहद खूबसूरत थी हमारी ज़िंदगी;
लेकिन अचानक एक दिन
यों बदनुमा … बदरंग कैसे हो गयी?
भूल कर भी;
जब नहीं की भूल कोई
फिर भुलावों-भटकनों में
राह कैसे खो गयी?
रे, अब कहाँ जाएँ,
इस ज़िंदगी का रूप-रस फिर
कब … कहाँ पाएँ?
अधिक अच्छा यही होगा
हमेशा के लिए
चिर-शांति में चुपचाप सो जाएँ!
[4]
पछ्तावा ही पछ्तावा है!
मन / तीव्र धधकता लावा है!
जब-तब चट-चट करते अंगारों का
मर्मान्तक धावा है!
संबंध निभाते,
अपनों को अपनाते / गले लगाते,
उनके सुख-दुख में जीते कुछ क्षण,
करते सार्थक रीता जीवन!
लेकिन सब व्यर्थ गया,
कहते हैं — होता है फिर-फिर जन्म नया,
पर, लगता यह सब बहलावा है!
सच, केवल पछ्तावा है!
शेष छ्लावा है!
[5]
इस ज़िंदगी को
यदि पुनः जीया जा सके —
तो शायद
सुखद अनुभूतियों के फूल खिल जाएँ!
हृदय को
राग के उपहार मिल जाएँ!
आत्मा में मनोरम कामनाओं की
सुहानी गंध बस जाए
दूर कर अंतर / परायापन
कि सब हो एकरस जाएँ!
किंतु क्या संभव पृथक होना
अतीत-व्यतीत से,
इतिहास के अभिलेख से,
पूर्व-अंकित रेख से?
[6]
दिल भारी है, बेहद भारी है;
पग-पग पर लाचारी है!
रो लें,
मन-ही-मन रो लें,
एकांत क्षणों में रो लें!
असह घुटन है, बड़ी थकन है!
हलके हो लें,
हाँ, कुछ हलके हो लें!
रुदन — मनुज का जनम-जनम का साथी है,
स्वार्थी है,
स्व-हित साधक है / संरक्षक है !
रो लें! / सारा कल्म्ष धो लें!
रोना — स्वाभाविक है, नैसर्गिकहै!
रोना — जीवन का सच है,
रक्षा-मंत्र कवच है!
[7]
असह है, आह!
प्रीति का निर्वाह —
छ्ल-छदम मय,
मिथ्या … भुलावा
झूठ … मायाजाल!
तब यह ज़िंदगी —
गदली - कुरूपा अति भयावह
धधकता दाह!
[8]
गवाँ सब,
बेमुरौवत धूर्त दुनिया में
अकेले रह गये,
सचाई महज़ कहना चाहते थे
और ही कुछ कह गये,
जिसे समझा किये अपना
उसी ने मर्मघाती चोट की,
उसी की बेवफ़ाई हम
अरे, खामोश कैसे सह गये!
[9]
रौरव नरक-कुंड में
मर-मर जीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
सोचे-समझे, मूक विवश बन
विष के पैमाने पीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
हृदयाघातों को सह कर हँस-हँस
अपने हाथों, अपने घावों को
सीना कैसा लगता है
कोई हमसे पूछे!
[10]
बहुत प्यासा हूँ / प्यासा बहुत हूँ!
ज़िंदगी — बेहद उदास-हताश है,
ग़मगीन है मन
विरक्त / उजाड़ / उचाट!
बुझती नहीं प्यास
कंठ-चुभती प्यास / बुझती नहीं!
प्यासा रहा भर-ज़िंदगी
ख़ूब तड़का / ख़ूब तड़पा-छ्टपटाया …
भागा / बेतहाशा
इस मरुभूमि … उस मरूभूमि भागा,
जहाँ भी, ज़रा भी दी दिखाई आस
भागा!
बुझाने प्यास
सब सहता रहा; दहता रहा
लपट-लपट घिर,
सिर से पैर तक
गलता-पिघलता रहा!
अतृप्त अबुझ सनातन प्यास ले
एक दिन दम तोड़ दूंगा,
रसों डूबी / नहायी तर-बतर
रंगीन दुनिया छोड़ दूंगा!
[11]
जीवन चाहता जैसा
उसे पाने
अभी भी मैं प्रतीक्षा में!
सहज हो जी रहा
इस आस पर, विश्वास पर
जैसा कि जीवन चाहता —
आएगा … ज़रूर-ज़रूर आएगा
एक दिन!
चाहता जो गीत मैं गाना
विकल रचना-चेतना में
भावना-विह्वल
सजग जीवित रहेगा,
और उतरेगा उसी लय में
किसी भी क्षण
जिस तरह मैं
चाहता हूँ गुनगुनाना!
ऊमस-भरा
बदला नहीं मौसम,
वांछित
बरसता नेह का सावन नहीं आया,
वांछित
सरस रंगों भरा माधव नहीं छाया,
फुहारो! मोह-रागो!
बाट जोहूंगा तुम्हारी,
एक दिन
सच, रिमझिमाएगा
अनेक-अनेक मेघों से लदा आकाश!
दहकेंगे हज़ारों लाल-लाल पलाश!
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