सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

TARON KE GEET

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डॉ. महेंद्र भटनागर
उत्कृष्ट काव्य-संवेदना समन्वित द्वि-भाषिक कवि : हिन्दी और अंग्रेज़ी।
सन् 1941 से काव्य-रचना आरम्भ। 'विशाल भारत' कोलकाता (मार्च 1944) में प्रथम कविता का प्रकाशन। लगभग छह-वर्ष की काव्य-रचना का परिप्रेक्ष्य स्वतंत्रता-पूर्व भारत; शेष स्वातंत्रयोत्तर।
सामाजिक-राजनीतिक-राष्ट्रीय चेतना-सम्पन्न रचनाकार।लब्ध-प्रतिष्ठ नवप्रगतिवादी कवि। अन्य प्रमुख काव्य-विषय प्रेम, प्रकृति, जीवन-दर्शन । दर्द की गहन अनुभूतियों के समान्तर जीवन और जगत के प्रति आस्थावान कवि। अदम्य जिजीविषा एवं आशा-विश्वास के अद्भुत-अकम्प स्वरों के सर्जक।
जन्म : 26 जून 1926 / झाँसी (उत्तर-प्रदेश)शिक्षा : एम.ए. (1948), पी-एच.डी. (1957) नागपुर विश्वविद्यालय से।कार्य : कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय / जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर से प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।सम्प्रति : शोध-निर्देशक : हिन्दी भाषा एवं साहित्य।कार्यक्षेत्र : चम्बल-अंचल, मालवांचल, बुंदेलखंड।
प्रकाशन : 'डा. महेंद्रभटनागर-समग्र' छह खंडों में उपलब्ध।प्रकाशित काव्य-कृतियाँ अठारह।
अनुवाद : कविताएँ अंग्रेज़ी, फ्रेंच, चेक एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित।
सम्पर्क : फ़ोन : 0751-4092908110, बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर - 474 002 (म.प्र.)
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तारों के गीत
- महेंद्र भटनागर
(1) तारक
झिलमिल-झिलमिल होते तारक !टिम-टिम कर जलते थिरक-थिरक !
कुछ आपस में, कुछ पृथक-पृथक,बिन मंद हुए, हँस-हँस, अपलक,
कुछ टूटे पर, उत्सर्गजनकनश्वर और अनश्वर दीपक।
बिन लुप्त हुए नव-ऊषा तकरजनी के सहचर, चिर-सेवक !
देखा करते जिसको इकटक,छिपते दिखलाकर तीव्र चमक !
जग को दे जाते चरणोदकइठला-इठला, क्षण छलक-छलक !
झिलमिल-झिलमिल होते तारक !

(2) जलते रहोजलते रहो, जलते रहो !
चाहे पवन धीरे चले,चाहे पवन जल्दी चले,आँधी चले, झंझा मिलें,तूफ़ान के धक्के मिलें, तिल भर जगह से बिन हिले जलते रहो, जलते रहो !
या शीत हो, कुहरा पड़े,गरमी पड़े, लूएँ चलें,बरसात की बौछार हो,ओले, बरफ़ ढक लें तुम्हें,आकाश से पर बिन मिटेजलते रहो, जलते रहो !
चाहे प्रलय के राग मेंजीवन-मरण का गान हो,दुनिया हिले, धरती फटेसागर प्रबलतम साँस ले, पिघले बिना सब देखकर जलते रहो, जलते रहो !

(3) तारों से
तारक नभ में क्यों काँप रहे ?
क्या इनके बंदी आज चरण ?अवरुद्ध बनी घुटती साँसें इन पर भी होता शस्त्र-दमन ?क्या ये भी शोषण-ज्वाला से, झुलसाये जाते हैं प्रतिपल ? दिखते पीड़ित, व्याकुल, दुर्बल,कुछ केवल कँपकर रह जाते,कुछ नभ की सीमा नाप रहे !तारक नभ में क्यों काँप रहे ?
क्या दुनिया वाले दोषी हैं ?सुख-दुख मय जीवन-सपनों में जब जग सोया, बेहोशी है,रजनी की छाया में जगती सिर से चरणों तक डूब रही, एकांत मौन से ऊब रही,जब कण-कण है म्लान, दुखी; तबये किसको दे अभिशाप रहे ?तारक नभ में क्यों काँप रहे ?
क्या कंपन ही इनका जीवन ?युग-युग से दीख रहे सुखमय, शाश्वत है क्या इनका यौवन ?गिर-गिर या छुप-छुप कर अविरल क्या आँखमिचौनी खेल रहे ? स्नेह-सुधा की बो बेल रहे !अपनी दुनिया में आपस में हँस-हँस हिल अपने आप रहे ! तारक नभ में क्यों काँप रहे ?

(4) तिमिर-सहचर तारक
ये घोर तिमिर के चिर-सहचर !
खिलता जब उज्ज्वल नव-प्रभात, मिट जाती है जब मलिन रात, ये भी अपना डेरा लेकर चल देते मौन कहीं सत्वर ! ये घोर-तिमिर के चिर-सहचर !
मादक संध्या को देख निकट जब चंद्र निकलता अमर अमिट, ये भी आ जाते लुक-छिप कर जो लुप्त रहे नभ में दिन भर! ये घोर तिमिर के चिर-सहचर !
होता जिस दिन सघन अंधेरा अगणित तारों ने नभ घेरा, ये चाहा करते राका के मिटने का बुझने का अवसर ! ये घोर-तिमिर के चिर-सहचर !
ज्योति-अंधेरे का स्नेह-मिलन, बतलाता सुख-दुखमय जीवन, उत्थान-पतन औ' अश्रु-हास से मिल बनता जीवन सुखकर! ये घोर-तिमिर के चिर-सहचर !
(5) दीपावली और नक्षत्र-तारक
दीप अगणित जल रहे ! अट्टालिकाएँ और कुटियाँ जगमगाती हैं सघन तम में अमा के ! कर रही नर्तन शिखाएँ ज्योति की हिल-हिल, निकट मिल ! और थिर हैं बल्ब नीले, लाल, पीले औ' विविध रंगीन जगती आज लगती ! हो रही है होड़ नभ से; ध्यान सारा छोड़ कर मन सब दिशाओं की तरफ़ से मोड़ कर, इस विश्व के भूखंड भारत ओर ये सब ताकते हैं झुक गगन से, मौन विस्मय ! दूर से भग - देख कर मग, मुग्ध हो-हो साम्य के आश्चर्य से भर ग्रह, असंख्यक श्वेत तारक ! हो गयी है मंद जिनकी ज्योति सम्मुख, हो गया लघुकाय मुख ! निर्जीव धड़कन; लुप्त कम्पन !

(6) तारे और नभ
तुम पर नभ ने अभिमान किया !
नव-मोती-सी छवि को लख कर अपने उर का शृंगार किया,फूलों-सा कोमल पाकर ही अपने प्राणों का हार किया,कुल-दीप समझ निज स्नेह ढाल तुमको प्रतिपल द्युतिमान किया ! तुम पर नभ ने अभिमान किया !
सुषमा, सुन्दरता, पावनता की तुमको लघुमूर्ति समझकर,
निर्मलता, कोमलता का उर में अनुमान लगाकर दृढ़तर,एकाकी हत भाग्य दशा पर जिसने सुख का मधु गान किया ! तुम पर नभ ने अभिमान किया !

(7) संध्या के पहले तारे से
शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
जब कि क्षण-क्षण पर प्रगति कर रात आती जा रही है,चंद्र की हँसती कला भी ज्योति क्रमश: पा रही है,हो गया है जब तिमिरमय विश्व का कण-कण हमारा !शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
बादलों की भी न चादर छा रही विस्तृत निलय में,और टुकड़े मेघ के भी, हो नहीं जिसके हृदय में,है नहीं कोई परिधि भी, स्वच्छ है आकाश सारा !शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?
जब कि है गोधूलि के पश्चात का सुन्दर समय यह,हो गये क्यों डूबती रवि-ज्योति में विक्षिप्त लय यह ?बन गयी जो मुक्त नभ के तारकों को सुदृढ़ कारा !शून्य नभ में है चमकता आज क्यों बस एक तारा ?

(8) अमर सितारे
टिमटिमाते हैं सितारे !दीप नभ के जल रहे हैंस्नेह बिन, बत्ती बिना ही !मौन युग-युग सेअचंचल शान्त एकाकी !लिए लघु ज्योति अपनी एक-सी,निर्जन गगन के मध्य में।ढल गये हैं युग करोड़ोंसामने सदियाँ अनेकोंबीतती जातीं लिए बसध्वंस का इतिहास निर्मम,पर अचल येहैं पृथक येविश्व के बनते-बिगड़ते,क्षणिक उठते और गिरते,क्षणिक बसते और मिटतेअमिट क्रम सेमुक्त वंचित !कर न पायी शक्ति कोईअन्त जीवन-नाश इनका।ये रहे जलते सदा ही
मौन टिमटिम !मुक्त टिमटिम !

(9) उल्कापात
जब गिरता है भू पर तारा !
आँधी आती है मीलों तक अपना भीषणतम रूप किये,सर-सर-सी पागल-सी गति में नाश मरण का कटु गान लिये, यह चिन्ह जता कर गिरता है तीव्र चमक लेकर गिरता है, यह आहट देकर गिरता है,यह गिरने से पहले ही दे देता है भगने का नारा ! जब गिरता है भू पर तारा !
हो जाते पल में नष्ट सभी भू, तरु, तृण, घर जिस क्षण गिरता,ध्वंस, मरण हाहाकारों का स्वर, आ विप्लव बादल घिरता, दृश्य - प्रलय से भीषणतर कर, स्वर - जैसा विस्फोट भयंकर, गति - विद्युत-सी ले मुक्त प्रखर,सब मिट जाता बेबस उस क्षण जग का उपवन प्यारा-प्यारा ! जब गिरता है भू पर तारा !

(10) ज्योति-केन्द्र
ज्योति के ये केन्द्र हैं क्या ?
ये नवल रवि-रश्मि जैसे, चाँदनी-से शुद्ध उज्ज्वल, मोतियों से जगमगाते, हैं विमल मधु मुक्त चंचल ! श्वेत मुक्ता-सी चमक, पर, कर न पाये नभ प्रकाशित, ज्योति है निज, कर न पाये पूर्ण वसुधा किन्तु ज्योतित ! कौन कहता, दीप ये जो ज्योति से कुटिया सजाते ? ये निरे अंगार हैं बस जो निकट ही जगमगाते ! ये न दे आलोक पाये बस चमक केवल दिखाते, झिलमिलाते मौन अगणित कब गगन-भू को मिलाते ? ज्योति के तब केन्द्र हैं क्या ?

(11) नश्वर तारक
इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !
जीवन की क्षणभंगुरता कोइनने भी जाना पहचाना,बारी-बारी से मिटना, परअगले क्षण ही जीवन पाना,आत्मा अमर रही, पर रूप न शाश्वत; यह मंत्र महान छिपा !इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !
जलते जाएंगे हँसमुख जब- तक शेष चमक, साँसें-धड़कन,कर्तव्य-विमुख जाना है कब, चाहे घेरें जग-आकर्षण ?इस संयम के पीछे बोलो, कितना ऊँचा बलिदान छिपा !इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !
हथकड़ियों में बंदी मानव- सम विचलित हो पाये ये कब ?अधिकार नहीं, पग भर भी बढ़ना है हाय, असम्भव !चंचलता रह जाती केवल दृढ़ तूफ़ानी अरमान छिपा !इन तारों की दुनिया में भी मिटने का अमिट विधान छिपा !

(12) नभ-उपवन
इनके ऊपर आकाश नहीं ।इस नीले-नीले घेरे का बस होता है रे अंत वहीं ! इनके ऊपर आकाश नहीं !
पर, किसने चिपकाये प्यारे,इस दुनिया की छत में तारे,कागज़ के हैं लघु फूल अरे हो सकता यह विश्वास नहीं ! इनके ऊपर आकाश नहीं !
कहते हो यदि नभ का उपवन,खिलते हैं जिसमें पुष्प सघन,पर, रस-गंध अमर भर कर यह रह सकता है मधुमास नहीं !इनके ऊपर आकाश नहीं !

(13) इंद्रजालये खड़े किसके सहारे ?
है नहीं सीमा गगन की मुक्त सीमाहीन नभ है,छोर को मालूम करना रे नहीं कोई सुलभ है !सब दिशाओं की तरफ़ से अन्त जिसका लापता है,शून्य विस्तृत है गहनतम कौन उसको नापता है ?
टेक नीचे और ऊपर भी नहीं देती दिखायी,पर अडिग हैं, कौन-सी आ शक्ति इनमें है समायी ?खींचती क्या यह अवनि है ? खींचता आकाश है क्या ?शक्ति दोनों की बराबर ! हो सका विश्वास है क्या ? जो खडे उनके सहारे ! ये खड़े किसके सहारे ?

(14) ज्योति-कुसुम
फूल हीबस फूल की रे,एक हँसतीखिलखिलाती,वायु से औ' आँधियों सेकाँपतीहिलतीसिहरतीयह लता है !यह लता है !देह जिसकी बाद पतझर केनवल मधुमास के,नव कोपलों-सी,शुद्ध, उज्ज्वल, रसमयीकोमल, मधुरतम !
आ कभी जाता प्रभंजनबेल के कुछ फूलया लघु पाँखुड़ी सूखीगँवाकर ज्योति, जीवन शक्ति सारी,मौन झर जातीं गगन से !या कभीजन स्वर्ग के आ,अर्चना को,तोड़ ले जाते कुसुम,इस बेल से,जो विश्व भर में छा रही हैनाम तारों की लड़ी बन !

(15) जलते रहना
तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !
जब तक प्राची में ऊषा की किरणेंबिखरा जाएँ नव-आलोक तिमिर में,विहगों की पाँतें उड़ने लग जाएँइस उज्ज्वल खिलते सूने अम्बर में, तब तक तुम रह-रह कर जलते रहना ! तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !जैसे पानी के आने से पहलेदिन की तेज़ चमक धुँधली पड़ जाती,वेग पवन के आते स्वर सर-सर करफिर भू सुख जीवन शीतलता पाती, गति ले वैसी ही तुम जलते रहना !तुम प्रतिपल मिट-मिट कर जलते रहना !

(16) शीताभ
ये हिम बरसाने वाले हैं, ये अग्नि नहीं बरसाएंगे !
जब पीड़ित व्याकुल मानवता, दुख-ज्वालाओं से झुलसायी,बंदी जीवन में जड़ता है ; जिसने अपनी ज्योति गँवायी,
जब शोषण की आँधी ने आ मानव को अंधा कर डाला,क्रूर नियति की भृकुटि तनी है, आज पड़ा खेतों में पाला,
त्राहि-त्राहि का आज मरण का जब सुन पड़ता है स्वर भीषण,चारों ओर मचा कोलाहल, है बुझता दीप, जटिल जीवन,
जब जग में आग धधकती है, लपटों से दुनिया जलती है,अत्याचारों से पीड़ित जब भू-माता आज मचलती है,ये दु:ख मिटाने वाले हैं; जग को शीतल कर जाएंगे !ये हिम बरसाने वाले हैं, ये अग्नि नहीं बरसाएंगे !

(17) नृत्त
देखो इन तारों का नर्तन !
सुरबालाओं का नृत्य अरे देखा होगा हाला पीकर,देखा होगा माटी का क्षण-भंगुर मोहक नाच मनोहर,पर गिनती है क्या इन सबकी यदि देखा तारों का नर्तन !युग-युग से अविराम रहा हो बिन शब्द किये रुनझुन-रुनझुन!
देखो इन तारों का नर्तन !
सावन की घनघोर घटाएँ छा-छा जातीं जब अम्बर में,शांति-सुधा-कण बरसा देतीं व्याकुल जगती के अंतर में,तब देखा होगा मोरों का रंगीन मनोहर नृत्य अरे !पर, ये सब धुँधले पड़ जाते सम्मुख तारक-नर्तन प्रतिक्षण !
देखो इन तारों का नर्तन !

(18) अबुझये कब बुझने वाले दीपक ?
अविराम अचंचल, मौन-व्रती ये युग-युग से जलते आये,लाँघ गये बाधाओं को, ये संघर्षों में पलते आये,रोक न पाये इनको भीषण पल भर भी तूफ़ान भयंकरमिट न सके ये इस जगती से, आये जब भूकम्प बवंडर !
झंझा का जब दौर चला था लेकर साथ विरुद्ध-हवाएँ,ये हिल न सके, ये डर न सके, ये विचलित भी हो ना पाए!ये अक्षय लौ को केन्द्रित कर हँस-हँस जलने वाले दीपक ! ये कब बुझने वाले दीपक ?

(19) प्रिय तारक
यदि मुक्त गगन में ये अगणिततारे आज न जलते होते !
कैसे दुखिया की निशि कटती ! जो तारे ही तो गिन-गिन कर, मौन बिता, अगणित कल्प प्रहर, करती हलका जीवन का दुख। कुछ क्षण को अश्रु उदासी के इन तारे गिनने में खोते ! यदि मुक्त गगन में ये अगणित तारे आज न जलते होते ! फिर प्रियतम से संकोच भरे कैसे प्रिय सरिता के तट पर, गोदी के झूले में हिल कर, कहती, 'कितने सुन्दर तारक ! आओ, तारे बन जाएँ हम।' आपस में कह-कह कर सोते ! यदि मुक्त गगन में ये अगणित तारे आज न जलते होते !

(20) मेघकाल में
बादलों में छिप गये सब दृष्टि सीमा तक सितारे !
आज उमड़ी हैं घटाएँ, चल रहीं निर्भय हवाएँ, दे रहीं जीवन दुआएँ, उड़ रहे रज-कण गगन में, घोर गर्जन आज घन में, दामिनी की चमक क्षण में, जब प्रकृति का रूप ऐसा हो गये ये दूर-न्यारे ! बादलों में छिप गये सब दृष्टि सीमा तक सितारे !
जब बरसते मेघ काले, और ओले नाश वाले भर गये लघु-गहन नाले, विश्व का अंतर दहलता, मुक्त होने को मचलता, शीत में, पर, मौन गलता, हट गये ये उस जगह से, हो गये बिलकुल किनारे ! बादलों में छिप गये सब दृष्टि सीमा तक सितारे !

(21) जगते तारे
अर्ध्द निशा में जगते तारे !जब सो जाते दुनिया वासी; जन-जन, तरु, पशु, पंछी सारे !
अर्द्ध निशा में जगते तारे !
ये प्रहरी बन जगते रहते,आपस में मौन कथा कहते,ना पल भर भी अलसाये रे, चमके बनकर तीव्र सितारे ! अर्द्ध निशा में जगत तारे !
झींगुर के झन-झन के स्वर भी,दुखिया के क्रन्दन के स्वर भी,लय हो जाते मुक्त-पवन में चंचल तारों के आ द्वारे ! अर्द्ध निशा में जगते तारे !
निद्रा लेकर अपनी सेना,कहती, 'प्रियवर झपकी लेना'हर लूँ फिर मैं वैभव, पर, ये कब शब्द-प्रलोभन से हारे ! अर्द्ध निशा में जगते तारे !
जलते निशि भर बिन मंद हुए,कब नेत्र-पटल भी बंद हुए,जीवन के सपनों से वंचित ये सुख-दुख से पृथक बिचारे ! अर्द्ध निशा में जगते तारे !
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